महाराष्ट्र चुनावों की दौड़ में आगे कौन, ये बताना क्यों है जोखिम भरा काम
महाराष्ट्र में 15 अक्तूबर को चुनावी बिगुल बजते ही राजनीतिक दलों के वादे और दावे जनता के सामने आने लगे. राज्य में 20 नवंबर को विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग होनी है. इस दौरान यहां की फ़िजाओं में एक नारा गूंजने लगा - ‘बंटेगे तो कटेंगे.’
अक्सर इस नारे को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ जोड़कर देखा जाता है. योगी आदित्यनाथ महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी के स्टार प्रचारक भी हैं.
'बंटेगे तो कटेंगे' नारे को ध्रुवीकरण की राजनीति से जोड़ कर देखा जा रहा है. ये नारा उछलते ही बीजेपी के प्रचार अभियान का हिस्सा बन गया, लेकिन इस नारे को लेकर अब थोड़ी खींचतान दिख रही है.
बीते पांच वर्षों में राज्य की सियासत में कई भूचाल आए हैं. इनके कारण कई नए दलों का गठन हुआ है और पुरानी वफ़ादारियां तार-तार हुई हैं. दलों और मंझे हुए सियासतदानों के भीड़ में आगे कौन निकलेगा इसके क़यास लगाना जोखिम भरा काम लग रहा है.
महाराष्ट्र में बीजेपी महायुति गठबंधन का हिस्सा है. एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी इस गठबंधन में बीजेपी के सहयोगी हैं.
हालाँकि अजित पवार को ये नारा रास नहीं आया और उन्होंने ही सबसे पहले इसका विरोध किया.
उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा कि इस तरह के नारे महाराष्ट्र में कारगर नहीं होंगे. सिर्फ सहयोगियों से ही नहीं बल्कि बीजेपी के कुछ नेताओं की ओर से भी इसका विरोध हो रहा है.
पूर्व कैबिनेट मंत्री और बीजेपी नेता पंकजा मुंडे को भी लग रहा है कि इस नारे का समर्थन नहीं किया जा सकता.
‘इंडियन एक्सप्रेस’ को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, "साफ बोलूं तो मेरी राजनीति अलग है. मैं बीजेपी की सदस्य हूं इसका मतलब ये नहीं कि मैं इस नारे का समर्थन करती हूं."
'बंटेगे तो कटेंगे' की आलोचना बढ़ती देख बीजेपी ने शब्दों को थोड़ा बदल दिया और ये बदलाव भी किसी और ने नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री मोदी ने किया. उन्होंने एक नया नारा उछाला- 'एक हैं तो सेफ़ हैं'.
नारा बदलते ही बीजेपी ने अगले दिन महाराष्ट्र के सभी प्रमुख अख़बारों में 'एक हैं तो सेफ़ हैं' का विज्ञापन दे दिया.
बीजेपी का 'कटेंगे तो बंटेंगे' के नारे का पार्टी के अपने नेताओं और सहयोगियों की ओर से विरोध चौंकाने वाला है क्योंकि ये पार्टी अपने आंतरिक अनुशासन के लिए जानी जाती है.
लेकिन आज की तारीख़ में कोई भी पार्टी एक भी वोट गंवाना नहीं चाहती. न अजित पवार और न पंकजा मुंडे.
अजित पवार की पार्टी के लिए अल्पसंख्यक मतदाताओं के वोट काफी अहम हैं.
पंकजा मुंडे के लिए भी ये वोट उतने ही महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वो जिस विदर्भ क्षेत्र से आती हैं वहां अल्पसंख्यक वोट निर्णायक हैं.
पार्टी के अंदर 'बंटेंगे तो कटेंगे' का विरोध यहीं तक नहीं रुका. राज्य में बीजेपी के नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल और अशोक चह्वाण ने भी इसे लेकर नाखुशी जताई.
इसलिए पार्टी को थोड़ा झुकना पड़ा. देवेंद्र फडणवीस ने मामले को ये कहकर ठंडा करने की कोशिश की कि इस नारे को विभाजनकारी लेंस से नहीं देखा जाना चाहिए.
लेकिन सवाल ये नहीं है कि बीजेपी ने इस नारे के शब्दों को कितनी फुर्ती से बदला. बल्कि सवाल ये है कि इस चुनाव में बीजेपी का कितना कुछ दांव पर लगा है. ये इससे ही ज़ाहिर होता है कि इसके नेता भी ‘पार्टी लाइन’ के आगे झुकने को तैयार नहीं दिख रहे हैं.
दरअसल महाराष्ट्र चुनाव में ज़मीन पर पार्टियों के बीच कांटे की टक्कर है. लिहाज़ा पार्टी नेता अपना एक भी वोट गंवाना नहीं चाहते.
ये इस बात का एक उदाहरण है कि क्योंकि इसे साल 1960 में अस्तित्व में आए महाराष्ट्र राज्य का सबसे जटिल चुनाव कहा जा रहा है.
फिलहाल देश की राजनीति में हर जगह जिस तरह से विभाजनकारी लाइनें खींच दी गई हैं उससे पार्टियों के बीच वोटों का अंतर लगातार कम होता जा रहा है.
हाल के लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में 'इंडिया' गठबंधन और बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के बीच वोटों का अंतर सिर्फ 0.6 फ़ीसदी था.
लेकिन पिछले चार महीनों के दौरान महाराष्ट्र में ज़मीनी हालात नहीं बदले हैं. इसलिए इस चुनाव में भविष्यवाणी करना या पहले से कुछ अनुमान लगा लेना मुश्किल हो गया है.
इस स्थिति के लिए राज्य में पिछले पांच साल से चल रही कुर्सी की लड़ाई ज़िम्मेदार है.
साल 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता के लिए इस राज्य में जिस तरह का खेल चला, वैसा किसी राज्य में नहीं दिखा.
दो सरकारों का पतन, दो दलों में विभाजन और नए दलों का उदय Photo by Milind Shelte/India Today Group/Getty Images महाराष्ट्र में पिछले विधानसभा चुनाव में उद्धव ठाकरे की शिवसेना और बीजेपी को जनादेश मिला थासाल 2019 के विधानसभा चुनाव के नतीज़ों के बाद महाराष्ट्र में जिस तरह की राजनीति हुई उसने इस राज्य को हमेशा के लिए बदल दिया.
ऐसे-ऐसे गठबंधन उभरे, जिनकी लोगों ने कल्पना भी नहीं की थी. इससे न सिर्फ राज्य में राजनीतिक उठापटक का दौर तेज़ हुआ बल्कि इसने एक समय में यहां संवैधानिक संकट भी पैदा कर दिया था.
महाराष्ट्र की इस पाला बदलने की राजनीति ने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया. राज्य में पिछले विधानसभा चुनाव में उद्धव ठाकरे की शिवसेना और बीजेपी को जनादेश मिला था.
लेकिन उद्धव बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिए तैयार नहीं हुए. इससे बीजेपी में बेचैनी बढ़ गई.
बीजेपी ने उद्धव ठाकरे को पहला झटका तब दिया जब देवेंद्र फडणवीस और एनसीपी के अजित पवार ने 23 नवंबर की सुबह शपथ ले ली. लेकिन उनकी सरकार 80 घंटे से अधिक नहीं चल पाई.
उद्धव ठाकरे की शिवसेना कांग्रेस के साथ चार दशक तक लड़ती रही थी.
लेकिन वो मुख्यमंंत्री भी कांग्रेस और एनसीपी के सहयोग से ही बने. उद्धव ठाकरे कोविड के दौरान मुख्यमंत्री बने रहे.
लेकिन एक राजनीतिक भूचाल में उनकी ढाई साल पुरानी सरकार ध्वस्त हो गई. ‘भूमि पुत्र’ के नारे और भावना पर बनी शिवसेना दो फाड़ हो गई.
ठाकरे के विश्वासपात्र एकनाथ शिंदे ने ही उनके ख़िलाफ़ बगावत कर दी और पार्टी के 41 विधायकों के साथ अपना गुट बना लिया. शिंदे बीजेपी की मदद से मुख्यमंत्री बन गए.
Getty Images देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार ने उद्धव ठाकरे की नाराज़गी के बाद मिलकर सरकार बना ली थीकुछ महीनों बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी में भी विभाजन हो गया. इस बार शरद पवार के भतीजे अजित पवार ने पार्टी में बगावत का झंडा बुलंद कर दिया.
वो बीजेपी के साथ हो लिये और फिर ‘महायुति’ सरकार में शामिल हो गए. इसे लेकर महीनों तक अदालती ड्रामा चला. दोनों पार्टियों के विभाजन को दलबदल विरोधी कानून का हवाला देकर अदालत में चुनौती दी गई.
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में फैसला करने के बजाय गेंद महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर राहुल नार्वेकर के पाले में डाल दी. उन्होंने बागियों के पक्ष में फैसला दिया. दल बदलने के लिए किसी भी विधायक की विधानसभा सदस्यता रद्द नहीं की गई.
यहां तक कि भारत के चुनाव आयोग ने भी बागियों का समर्थन किया. चुनाव आयोग ने शिवसेना पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न एकनाथ शिंदे को दे दिया.
उसी तरह एनसीपी में विभाजन के बाद पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न अजित पवार के गुट को मिल गया.
स्पीकर और चुनाव आयोग, दोनों के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है लेकिन अभी इस पर फैसला नहीं आया है.
इस हालात ने महाराष्ट्र के चुनावी रण को जटिल बना दिया. अब छह पार्टियां उनके दो मुख्य गठबंधन और कई छोटी पार्टियां चुनावी मैदान में हैं.
देश में विचारधारा की राजनीति अब उतार पर है और राजनीतिक विरोधाभासों का दौर शुरू हो चुका है.
इस बदले हुए माहौल में शायद महाराष्ट्र का मतदाता भ्रम की स्थिति में है, लेकिन अब पार्टियों को तोड़ने की राजनीति के प्रति उसका गुस्सा भी दिखने लगा है.
कुछ जानकारों का मानना है कि मतदाताओं की इस नाराज़गी की वजह से बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को लोकसभा चुनाव में नाकाम होना पड़ा.
विपक्ष और जानकार लगातार कहते रहे हैं कि सत्तारूढ़ पार्टी कुर्सी बचाए रखने के लिए ईडी, सीबीआई जैसी एजेंसियों का इस्तेमाल करती है.
पिछले पांच साल में महाराष्ट्र में विरोधाभासों की राजनीति के साथ ही नए गठबंधन भी उभरे हैं. इसके साथ-साथ विभाजन की नई रेखाएं भी खिंची हैं. यह विभाजन जाति के आधार पर उभरा है.
इसने महाराष्ट्र के सामाजिक तानेबाने पर असर डाला है. ख़ास कर ग्रामीण क्षेत्र में. साथ ही उसने यहां की सोशल इंजीनियरिंग में भी बदलाव किया है.
इस बार विधानसभा चुनाव में यह सबसे असरदार कारक साबित होने जा रहा है.
इस बार के चुनाव में सबसे ज़्यादा नज़र राज्य के मराठा समुदाय पर रहेगी. इस समुदाय के लोगों की आबादी सबसे ज़्यादा है.
राजनीतिक दबदबे में भी ये सबसे ऊपर है. राज्य में मराठों की आबादी 30 से 32 हो सकती है. लेकिन राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व में सबसे मज़बूत होने के बावजूद मराठा समुदाय शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग कर रहा है.
मराठा समुदाय को साल 2014 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार में आरक्षण दे भी दिया गया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी गई और वहां ये ख़ारिज हो गया.
लेकिन बीजेपी सरकार ने उन्हें अलग से कोटा देने के लिए मराठा समुदाय को विशेष तौर पर सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ों का दर्जा दिया. हाई कोर्ट ने इसे मंज़ूरी दे दी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे ख़ारिज कर दिया.
इसने मराठों के बीच, ख़ास कर मराठवाड़ा इलाके में बड़ी उथल-पुथल पैदा कर दी. यहां मराठों के आक्रोश और अशांति का चेहरा बने मनोज जरांगे पाटिल.
ANI महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा नज़र मराठा समुदाय पर हैंआरक्षण के समर्थन में जरांगे के आमरण अनशन की वजह से आंदोलन ने तूल पकड़ लिया.
मराठा युवकों में जरांगे का समर्थन काफी बढ़ गया. लेकिन इससे ओबीसी समुदाय नाराज़ हो गया और उसने मराठों के आरक्षण का विरोध शुरू कर दिया.
जरांगे चाहते हैं कि मराठों को ओबीसी का दर्जा दिया जाए. जबकि ओबीसी इसके ख़िलाफ़ हैं.
यह विरोध कई बार हिंसा में भी तब्दील हो चुका है. इसने दोनों समुदायों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा कर दिया है. राज्य का सामाजिक तानाबाना भी इससे प्रभावित हुआ है.
इसने राज्य में जाति के आधार पर बड़ा ध्रुवीकरण कर दिया है और लगता है कि इस चुनाव में इसका असर दिखेगा.
आरक्षण के सवाल पर लड़ रहे मराठों और ओबीसी समुदाय के अलावा कई दूसरे समुदाय भी इस मामले को लेकर आक्रामक हो गए हैं.
धनगड़ समुदाय अब चाहता है कि उसे आदिवासी दर्जा देकर आरक्षण दिया जाए. लेकिन आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं.
आदिवासी विधायकों को लगा कि चुनाव को देखते हुए राज्य सरकार धनगड़ समुदाय को आदिवासी का दर्जा देकर आरक्षण देने के लिए प्रस्ताव ला सकती है.
लिहाज़ा पिछले दिनों छह आदिवासी विधायकों ने उस बिल्डिंग की पांचवीं मंजिल से नीचे लगे सेफ्टी नेट पर छलांग दी, जहां मुख्यमंत्री बैठते हैं.
राज्य में मुस्लिमों की आबादी 11 फ़ीसदी और दलितों की आबादी 12 फ़ीसदी है. वो क्या सोच रहे हैं उसका भी असर चुनाव नतीजों पर दिखेगा. दोनों समुदायों ने इस बार लोकसभा चुनाव में विपक्षी दलों के पक्ष में वोट दिया था.
‘लाडली बहना’ से लेकर ‘मुख्यमंत्री- मेरी लाडली बहन योजना’ तक, वेलफेयर स्कीमों की राजनीतिमहाराष्ट्र की राजनीति में एक और गेमचेंजर पहलू उभर चुका है. पिछले तीन महीनों के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों इस नए पहलू को लेकर आमने-सामने हैं.
दोनों ओर की पार्टियां मतदाताओं को आकर्षक स्कीमों से लुभाने की कोशिश में लगी हैं.
ज़्यादातर स्कीमें सीधे लोगों तक पैसा पहुंचाने से जुड़ी हैं. यानी सभी पार्टियां नई-नई लाभार्थी योजनाएं लेकर आ रही हैं.
सबसे ज़्यादा चर्चा एकनाथ शिंदे सरकार की ओर से शुरू की गई ‘मुख्यमंत्री- मेरी लाडली बहन योजना' की है.
लोकसभा चुनाव में बीजेपी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई थी. इससे सबक लेकर महायुति सरकार ने मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार की लाडली बहना स्कीम से प्रेरणा ली और राज्य में ‘मुख्यमंत्री- मेरी लाडली बहन योजना’ शुरू की.
इस स्कीम की वजह से विपरीत राजनीतिक हालात के बावजूद मध्य प्रदेश में बीजेपी चुनाव जीतने में सफल रही थी.
इसी तर्ज़ पर महाराष्ट्र सरकार ने ‘मुख्यमंत्री- मेरी लाडली बहन योजना' के तहत राज्य की महिला लाभार्थियों के खाते में 1500 रुपये ट्रांसफर किए.
BBC माना जाता है कि महायुति सरकार ने मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार की लाडली बहना स्कीम से प्रेरणा ली हैअब तक दो करोड़ लाभार्थियों को इसकी तीन किस्तें मिल चुकी हैं. सरकार ने ऐलान किया है कि अगर वो सत्ता में लौटी तो 1500 रुपये की रकम बढ़ा कर 2100 रुपये कर देगी.
इस स्कीम से महिलाओं के खिले चेहरे देखकर महाविकास अघाड़ी (विपक्षी दलों का गठबंधन) ने कर्नाटक की ‘महालक्ष्मी स्कीम’ की तर्ज़ पर महाराष्ट्र की महिलाओं को हर महीने 3000 रुपये देने और राज्य परिवहन निगम की बसों में बिना टिकट यात्रा की स्कीम का ऐलान किया है.
इसके साथ ही बेरोज़गार युवाओं को रोज़गार मिलने तक हर महीने 4000 रुपये देने का वादा किया है.
महाराष्ट्र चुनाव में किसान भी निर्णायक वोट बैंक साबित होने जा रहे हैं. राज्य में प्याज़ एक प्रमुख नकदी फसल है.
लोकसभा चुनाव के दौरान प्याज़ के निर्यात पर पाबंदी से किसान नाराज़ हो गए थे और बीजेपी को राज्य के कुछ इलाकों में वोटों का नुकसान हुआ था.
मानसून की बारिश संतोषजनक रही है. लेकिन किसानों में असंतोष दिख रहा है.
मसलन सोयाबीन किसान इसके रेट गिरने से नाराज़ हैं. अच्छी कीमत मिलने की उम्मीद में किसान अब सोयाबीन नहीं बेच रहे हैं.
किसानों में इस अंसतोष का अंदाज़ा लगते ही कांग्रेस ने ऐलान किया है कि वो सत्ता में आई तो सोयाबीन की एमएसपी प्रति क्विंटल 6000 रुपये कर देगी.
जबकि महायुति ने ऐलान किया है कि वो किसानों का बिजली बिल माफ कर देगी. सवाल है कि किसान इसका भरोसा कर वोट देंगे.
इन सभी वजहों ने मिलकर महाराष्ट्र चुनाव को बेहद जटिल और कांटे की टक्कर वाला बना दिया है. शायद ये राज्य के राजनीतिक इतिहास का सबसे जटिल चुनाव है. ये एक ऐसा चुनाव बनता जा रहा है जिसकी भविष्यवाणी करना चुनाव विश्लेषकों के लिए भी मुश्किल साबित हो रहा है.
फिलहाल जो राजनीतिक हालात हैं उसमें कई नेताओं का राजनीतिक करियर दांव पर लगा है.
चुनाव नतीजें जो भी हों लेकिन राज्य और केंद्र दोनों की राजनीति में नई धाराएं देखने को मिल सकती हैं
लिहाज़ा बीजेपी और उसके खिलाफ लड़ रही कांग्रेस और सहयोगी दल, दोनों महाराष्ट्र की इस जंग को जीतना चाहेंगे.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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