शबाना ने जब फ़िल्मों में आने का ज़िक्र किया तो पिता ने क्यों दी मोची की मिसाल?

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Getty Images शबाना आज़मी ने साल 1974 में आई फ़िल्म 'अंकुर' से हिन्दी सिनेमा में कदम रखा था

आमतौर पर हिंदी सिनेमा में जब हीरोइन को लॉन्च किया जाता है तो पूरा ध्यान ग्लैमर, डिज़ाइनर कपड़ों और सपनीले रोमांटिक किरदार और गीतों पर दिया जाता है.

1974 में इस पूरी धारणा को तहस-नहस करते हुए एक अभिनेत्री को हिंदी सिनेमा में लॉन्च किया गया.

मेकअप, ग्लैमर और नाच-गाने के बिना एक ऐसा किरदार गढ़ा गया जिसमें एक दलित युवती गर्भवती हो जाती है, हालांकि सामाजिक दबाव के बावजूद गर्भपात कराने से इनकार कर देती है.

मगर, उस किरदार को निभा रही उस लड़की के चेहरे और उस पर उभरते स्वाभाविक जज़्बात का आकर्षण और सामंती शोषण के ख़िलाफ़ उन आंखों की तीव्रता ऐसी थी कि वह सीधे लोगों के दिलों में उतर गई.

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वो अभिनेत्री शबाना आज़मी थीं, जिन्होंने श्याम बेनेगल की फ़िल्म, अंकुर (1974) के साथ हिंदी सिनेमा में अपनी एक अलग धमक दी.

आमतौर पर जहां बॉलीवुड अभिनेत्रियों का करियर धीरे-धीरे स्क्रीन और चर्चाओं से ग़ायब हो जाता है, शबाना आज़मी पचास साल से अपनी मौजूदगी का सशक्त अहसास करवाती रही हैं.

शबाना आज़मी का सफ़र Getty Images शबाना आज़मी ने शुरुआत से ही हिंदी फ़िल्मों की हीरोइनों से जुड़ी कई मान्यताएं बड़े शानदार तरीक़े से ध्वस्त कीं

पहली ही फ़िल्म "अंकुर" के लिए शबाना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया, ये तो सब जानते हैं.

लेकिन, उनकी गंभीर इमेज, उनके अनगिनत अवॉर्ड्स और उनके निडर सामाजिक सरोकार और बेबाक बयानों के शोर में ये ज़िक्र दब जाता है कि एक विशुद्ध अभिनेत्री के तौर पर उनकी रेंज ग़ज़ब की है और इस रेंज को दर्शकों ने खुले दिल से स्वीकार किया है.

दुनियाभर में ऐसे उदाहरण बेहद कम हैं.

सत्तर के दशक में जब देश में समानांतर सिनेमा ने नयी करवट ली, तो नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, स्मिता पाटिल के साथ शबाना आज़मी उस सिनेमा की प्रमुख स्टार थीं.

आमतौर पर समानांतर सिनेमा वालों को विशुद्ध व्यावसायिक या मसाला फ़िल्मों में खुलकर स्वीकार्यता नहीं मिलती, लेकिन शबाना आज़मी ने शुरुआत से ही हिंदी फ़िल्मों की हीरोइनों से जुड़ी कई मान्यताएं बड़े शानदार तरीक़े से ध्वस्त कीं और अपने बोल्ड निर्णयों से ये हमेशा करती रहीं.

Getty Images "अंकुर" से शुरुआत करने के बाद उसी साल शबाना आज़मी, देव आनंद निर्देशित रोमांटिक फ़िल्म 'इश्क इश्क इश्क' में नज़र आयीं.

स्मिता पाटिल को जीवन ने कम समय दिया, लेकिन स्मिता के साथ शबाना ही ऐसी अभिनेत्री हैं, जो दशकों तक आर्ट और कमर्शियल दोनों तरह के सिनेमा की बड़ी स्टार रहीं.

सोचिए एक अभिनेत्री जिसके बारे में कहा गया कि वो हिंदी सिनेमा के ‘पारंपरिक सुंदरता’ के मापदंड या ‘ग्लैमर कोशेंट’ पर खरी नहीं उतरती, वो शबाना आज़मी हर तरह की फ़िल्मों में हिट रहीं.

"अंकुर" से शुरुआत करने के बाद उसी साल शबाना आज़मी, देव आनंद निर्देशित रोमांटिक फ़िल्म 'इश्क इश्क इश्क' में नज़र आयीं.

शबाना की हिट फ़िल्में Anu Arts फ़िल्म अर्थ के एक दृश्य में अभिनेत्री शबाना आज़मी (बाएं) और स्मिता पाटिल (दाएं)

एक तरफ वो निशांत, शतरंज के खिलाड़ी, स्पर्श, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है जैसी सशक्त पैरेलेल फ़िल्मों में दिल छूने वाले अभिनय से झंडे गाड़ती रहीं.

वहीं फ़कीरा, चोर सिपाही, अमर अकबर एंथनी, परवरिश, कर्म, लहू के दो रंग और थोड़ी सी बेवफाई जैसी विशुद्ध कमर्शियल फ़िल्मों में पूरी तरह ग्लैमरस अवतार में नज़र आईं.

उन्होंने राजेश खन्ना, शशि कपूर , विनोद खन्ना, और जीतेन्द्र जैसे उस दौर के बड़े स्टार्स के साथ कामयाब फ़िल्मी जोड़ी बनाई.

साथ ही नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, गिरीश कर्नाड जैसे खांटी पैरेलल फ़िल्मों के बेमिसाल एक्टर्स के साथ दमदार परफॉरमेंस से अपने हर किरदार को जीवंत कर दिया.

वहीं अर्थ, जैसी कामयाब कल्ट फ़िल्म से आर्ट और कमर्शियल के बीच की रेखा को मिटाती रहीं. पांच दशक तक इस बैलेंस को क़ायम रखना बेमिसाल उपलब्धि है.

समानांतर और व्यावसायिक फ़िल्मों में अपने किरदारों को शबाना मानो लिबास की तरह बदल लेती थीं.

Getty Images मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक की डिग्री लेने के बाद शबाना ने अपने पिता के सामने फ़िल्मों में आने का इरादा ज़ाहिर किया था

सिनेमा की नई लहर वाली फ़िल्मों में उनका वर्चस्व कुछ ऐसा था कि पहली फ़िल्म "अंकुर" में राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल करने के बाद, फ़िल्म अर्थ, खंडहर और पार के लिए 1983, 1984 और 1985 में लगातार तीन सालों के दौरान उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया.

फिर गॉडमदर (1999) के लिए उन्होंने अपना पांचवां राष्ट्रीय पुरस्कार जीता. बॉलीवुड के इतिहास में ऐसी कोई दूसरी मिसाल नहीं है.

उन्होंने 6 फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड्स भी जीते हैं, जिनमें से आख़िरी उन्होंने इसी साल करण जौहर की फ़िल्म रॉकी और रानी की प्रेम कहानी के लिए जीता.

सोचिए "अंकुर" में एक दलित लड़की की मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल, मंडी में वेश्यालय चलाने वाली मज़बूत महिला, स्पर्श में एक दृष्टिहीन व्यक्ति की संवेदनशील प्रेमिका, शतरंज के खिलाड़ी में एक उपेक्षित और चिड़चिड़ी बेगम, फायर में समलैंगिक किरदार में सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देती, तो अर्थ में एक बेवफा पति की अपमानित बीवी के रोल में शबाना हिंदी सिनेमा की अभिनेत्री को वो आयाम देती हैं कि ये किरदार भुलाए नहीं भूलते.

बेबाकी के लिए भी मशहूर हैं शबाना Getty Images देश-दुनिया में चलने वाले तमाम मुद्दों पर वो बेबाकी से अपनी राय रखती हैं. सामाजिक सरोकार से ये जुड़ाव शबाना को अपने परिवार से मिला और उस विरासत को अपने ही अंदाज़ में वो आगे बढ़ाती रहीं.

जटिल विषयों और मुद्दों की बात सिर्फ़ फ़िल्मों तक ही सीमित नहीं रही, शबाना समाज सेवा से भी जुड़ीं और बेबाकी से कई ज़रूरी मुद्दों को अपनी सशक्त आवाज़ दी.

इनमें महिला अधिकारों से लेकर झुग्गी-बस्तियों में रहने वालों, एड्स जैसे संवेदनशील मुद्दों के साथ-साथ कई मानवाधिकार और देश-दुनिया में चलने वाले तमाम मुद्दों पर वो अपनी राय रखती हैं.

सामाजिक सरोकार से ये जुड़ाव शबाना को अपने परिवार से मिला और उस विरासत को अपने ही अंदाज़ में वो आगे बढ़ाती रहीं.

18 सितंबर, 1950 को उर्दू के प्रख्यात शायर और गीतकार कैफ़ी आज़मी और थिएटर अभिनेत्री शौकत आज़मी के घर जन्मीं शबाना का नाम उर्दू साहित्य के एक और बड़ी हस्ती अली सरदार जाफ़री ने रखा था.

अपने पिता और प्रख्यात शायर कैफ़ी आज़मी की लिखी पंक्तियां ‘कोई तो सूद चुकाए, कोई तो ज़िम्मा ले उस इंक़लाब का जो आज तक उधार है’ शबाना को हमेशा सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने के लिए प्रेरित करती रहीं.

अपने एक साक्षात्कार में शबाना ने कहा था, “मेरा बचपन एक तरफ अपनी मां के पृथ्वी थिएटर के साथ घूमने में बीता, दूसरी तरफ अपने पिता के साथ मदनपुरा में किसान सभाओं में, हर जगह लाल बैनर होते थे, ढेर सारी नारे-बाज़ी और ढेर सारी विरोध कविताएँ होती थीं.”

“एक बच्चे के रूप में मुझे इन रैलियों में केवल इसलिए रुचि थी क्योंकि मज़दूर मुझे लाड़-प्यार देते थे. हालाँकि, अदृश्य रूप से, मेरी जड़ें मिट्टी पकड़ रही थीं. आज जब मैं किसी प्रदर्शन, पदयात्रा या भूख हड़ताल में भाग ले रही होती हूं, तो यह महज़ उसी का विस्तार है जो मैंने बचपन में देखा था.”

उनके कम्यूनिस्ट घर का मौहाल राजनीतिक भी था और साहित्यिक भी.

उनके पिता के जो दोस्त उनके घर में बतौर मेहमान अक्सर ठहरते थे उनमें बेगम अख़्तर, जोश मलीहाबादी, फ़िराक़ गोरखपुरी और फैज़ अहमद फ़ैज भी थे.

शबाना के पिता ने क्यों की थी मोची बनने की बात? Getty Images शबाना आज़मी ने 6 फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड्स भी जीते हैं, जिनमें से आख़िरी उन्होंने इसी साल करण जौहर की फ़िल्म रॉकी और रानी की प्रेम कहानी के लिए जीता

मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक की डिग्री लेने के बाद, जब शबाना ने अपने पिता के सामने फ़िल्मों में आने का इरादा ज़ाहिर किया था.

इस पर शबाना के पिता कैफ़ी बोले, "आप अगर मोची भी बनना चाहें, तो भी मुझे उसमें कोई ऐतराज़ नहीं, लेकिन आप मुझसे वादा कीजिए कि आप सबसे बेहतरीन मोची बनकर दिखाएंगी."

शबाना को पुणे के एफ़टीआईआई में बेस्ट स्टूडेंट की स्कॉलरशिप भी मिली और वहां पढ़ने के दौरान ही उन्होंने दो फ़िल्में भी साइन कर ली थीं, जो ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘फ़ासला’ और 'परिणय' थीं.

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शुरुआत में उनका ज़्यादा ध्यान श्याम बेनेगल, सत्यजित रे, सई परांजपे, मृणाल सेन और अपर्णा सेन सरीखे पैरेलेल सिनेमा के बड़े फ़िल्मकारों की फ़िल्मों पर केंद्रित था.

मगर, जल्द ये अहसास भी हुआ कि अपनी आवाज़ आम दर्शकों के बीच पहुंचाने के लिए उन तक अपनी पहुंच लगातार बनाए रखनी होगी.

समानांतर सिनेमा के दूसरे कई एक्टर्स और फ़िल्मकारों से उलट शबाना ने हमेशा मुख्यधारा की कमर्शियल फ़िल्मों की अहमियत के बारे में बात की.

Getty Images शबाना आज़मी के पति स्क्रीनराइटर-गीतकार जावेद अख्तर शबाना आज़मी को अपना सबसे करीबी दोस्त और एक सबसे मज़बूत महिला बताते हैं.

इस बारे में बात करते हुए शबाना ने कहा था कि मुख्यधारा की फ़िल्मों की ओर इसलिए रुख़ किया क्योंकि उनका मानना है दर्शकों को अपनी ग़ैर-पारंपरिक फ़िल्मों की ओर आकर्षित करने के लिए, उन्हें व्यावसायिक सिनेमा में एक लोकप्रिय चेहरा बनना होगा.

लेकिन, उन्होंने दिलचस्प ऑफबीट भूमिकाओं के लिए अपनी आंखें और कान खुले रखे.

इसी का नतीजा थीं- मासूम, गॉडमदर, मैं आज़ाद हूं, साज़, दीपा मेहता की विवादास्पद ‘फायर’ और मृत्युदंड जैसी बोल्ड और प्रगतिशील फिल्में.

अब तक हिंदी और दूसरी भाषाओं की 120 से ज़्यादा फ़िल्में उनकी अद्भुत यात्रा की गवाह हैं.

महिलाओं की ताक़त, अहमियत और बराबरी के दर्जे की बात करने वाली कैफ़ी आज़मी की मशहूर नज़्म है, "उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे."

शबाना आज़मी के पति स्क्रीनराइटर-गीतकार जावेद अख्तर शबाना आज़मी को अपना सबसे करीबी दोस्त और एक सबसे मज़बूत महिला बताते हैं.

उन्होंने अपने एक लेख में लिखा, “अगर कैफ़ी ये नज़्म नहीं लिखते तो मैं इसे शबाना के लिए लिखता.”

Getty Images अब तक हिंदी और दूसरी भाषाओं की 120 से ज़्यादा फ़िल्में शबाना आज़मी की फ़िल्म जगत में अद्भुत यात्रा की गवाह हैं.

पिछले साल दिल्ली में उर्दू फेस्टिवल "जश्न-ए-रेख्ता" में मैंने जावेद अख़्तर को उनकी बात याद दिलायी (कि अगर कैफ़ी आज़मी ये नज़्म नहीं लिखते तो वो इसे शबाना के लिए लिखते).

अपने चिरपरिचित मज़ाकिया अंदाज़ में वो शबाना के सामने ही बोले, “नहीं नहीं, मेरी प्रॉब्लम ‘उठ मेरी जाने मेरे साथ ही चलना नहीं है’."

“मेरी समस्या ये है कि मेरी जान लगातार मुझसे आगे चल रही है, (मैं लिखूंगा) रुक मेरी जान, तेरे साथ ही चलना है मुझे.” बात मज़ाक में कही गयी लेकिन बात सच है.

आज की युवा पीढ़ी उन्हें "नीरजा", "घूमर" और "रॉकी और रानी की प्रेम कहानी" जैसी इस दौर की फ़िल्मों से पहचानती हैं.

फ़िल्में बदल गयीं, शबाना के किरदार बदल गए मगर नहीं बदला तो उन किरदारों को आज भी जीकर दिखाना. सिनेमा में पांच दशक से चल रही उनकी लंबी और शानदार पारी अब भी जारी है.

पचास साल बहुत लंबा वक्त होता है. पचास साल आधी सदी होती है और पचास साल तक निरंतर असाधारण काम करने वाली कलाकार आम नहीं होती. वो शबाना आज़मी होती है.

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