पाकिस्तानी प्रोफ़ेसर ने बांग्लादेश में जाकर क्या-क्या अनुभव किया
ढाका यूनिवर्सिटी बांग्लादेश की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी है. इस यूनिवर्सिटी की पहचान बहुआयामी रही है.
ढाका यूनिवर्सिटी की पहचान भारत के जाने-माने भौतिक विज्ञानी और गणितज्ञ सत्येंद्रनाथ बोस के कारण भी है.
अब बांग्लादेश ने ढाका यूनिवर्सिटी में पाकिस्तान के स्टूडेंट्स को भी आने की अनुमति दे दी है. ढाका यूनिवर्सिटी पाकिस्तान विरोधी आंदोलन का जन्म स्थान रहा है. शेख़ हसीना की सरकार के दौरान यूनिवर्सिटी में यह मांग उठी थी कि पाकिस्तान 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में जनसंहार के लिए माफ़ी मांगे.
साल 2015 में इसी मांग के दौरान शेख़ हसीना की सरकार ने ढाका यूनिवर्सिटी में पाकिस्तानी स्टूडेंट्स के एडमिशन पर पाबंदी लगा दी थी.
सत्येंद्रनाथ बोस का जन्म कोलकाता में हुआ था. इन्होंने बीएससी और एमएससी की पढ़ाई कोलकाता यूनिवर्सिटी से की थी.
1917 में बोस कोलकाता यूनिवर्सिटी में ही रिसर्च स्कॉलर और लेक्चरर बने. इसके बाद 1921 में सत्येंद्रनाथ बोस ढाका यूनिवर्सिटी में रीडर बन गए.
बोस ने अपनी पीएचडी पूरी नहीं की लेकिन जाने-माने वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने इनकी प्रतिभा पहचानी. इसके बाद बोस ढाका यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर और फिजिक्स डिपार्टमेंट के हेड बने. 1945 में बोस वापस कोलकाता यूनिवर्सिटी आ गए थे.
ढाका यूनिवर्सिटी में सात से 10 नवंबर तक एक फिजिक्स कॉन्फ़्रेंस का आयोजन किया गया था. इस कॉन्फ़्रेंस का नाम था- सेंटेनियल सेलिब्रेशन ऑफ बोस- आइंस्टाइन स्टैटिस्टिक: अ लेगसी ऑफ ढाका.
इस कॉन्फ़्रेंस में शामिल होने भारत के अलावा पाकिस्तान के भी भौतिक विज्ञानी गए थे. नोबेल विजेता विलियम डेनियल फिलिप्स भी इस कॉन्फ़्रेंस में आए थे. पाकिस्तान से वहाँ के जाने-माने भौतिक विज्ञानी परवेज़ हुदभाई और भारत से अशोक सेन गए थे.
परवेज़ हुदभाई न केवल पाकिस्तान के जाने-माने भौतिक विज्ञानी हैं बल्कि चर्चित बुद्धिजीवी भी हैं. हुदभाई पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ खुलकर बोलते रहे हैं.
हुदभाई ने बांग्लादेश और ढाका यूनिवर्सिटी का अनुभव अपने पर साझा किया है. इस कॉन्फ़्रेंस का उद्घाटन बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद युनूस ने किया था.
परवेज़ हुदभाई कहते हैं, ''मोहम्मद युनूस ने कॉन्फ़्रेंस के उद्घाटन में बहुल माकूल बातें कहीं. वो कार्यक्रम से जल्दी चले गए थे. लेकिन उन्होंने कहा कि सत्येंद्रनाथ बोस को सेलिब्रेट करने का फ़ैसला बहुत अच्छा है और इसे बांग्लादेश की सारी यूनिवर्सिटी में करना चाहिए. ज़ाहिर है कि सत्येंद्रनाथ का ताल्लुक ढाका यूनिवर्सिटी से था लेकिन वह बांग्लादेश के भी राष्ट्रीय हीरो थे.''
परवेज़ हुदभाई ने भी इस कॉन्फ़्रेंस को संबोधित किया था. हुदभाई ने अपने संबोधन के बारे में बताया, ''मैंने कहा कि मेरा दिल तो बाग़-बाग़ हो गया क्योंकि बांग्लादेश ने ऐसे शख़्स को माना है जो उसी की मिट्टी का है. अगर सत्येंद्रनाथ बोस पाकिस्तान में होते तो उन्हें कोई नहीं पूछता.''
''पाकिस्तान में लोग तो अब्दुस सलाम तक को नहीं पूछते हैं. नोबेल विजेता अब्दुस सलाम पाकिस्तान के थे लेकिन हम नाम लेने से भी घबराते हैं. पाकिस्तान में ज्यों ही आप कहेंगे कि वो बड़ा भौतिक विज्ञानी था तो लोग पूछेंगे कि उसका मज़हब क्या था? मैंने बांग्लादेश के लोगों से कहा कि अच्छा हुआ कि आपने हमसे जुदाई की राह अख़्तियार किया.''
अब्दुस सलाम अहमदिया मुसलमान थे और अहमदिया को पाकिस्तान में मुसलमान नहीं माना जाता है.
परवेज़ हुदभाई ने कहा, ''ढाका यूनिवर्सिटी के अंदर 'बोस सेंटर फोर एडवांस स्टडी एंड रिसर्च इन नैचरल साइंस' सेंटर है. ये सेंटर यूनिवर्सिटी कैंपस में ठीक ठाक स्थिति में है. सत्येंद्रनाथ बोस की पैदाइश कोलकाता में हुई. 25 साल की उम्र में बोस ढाका पहुँच गए और यहाँ पढ़ाना शुरू किया. फिजिक्स में बोस की सोच बड़ी गहरी थी.''
''ये उस ज़माने की बात है, जब इंटरनेट नहीं था और लाइब्रेरी में चंद किताबें होती थीं. बोस इस बात पर सोचने लगे कि रौशनी जो हम तक पहुँचती है, उसकी अवस्था क्या है. ढाका में रहते हुए बोस ने इस पर काम किया और एक पेपर लिखा. बोस ने आइंस्टाइन को अपना पेपर भेजा. बोस ने आइंस्टाइन से कहा कि उन्होंने एक जर्नल को ये पेपर भेजा था लेकिन पब्लिश नहीं किया.''
''बोस ने पेपर अंग्रेज़ी में लिखा था. आइंस्टाइन बोस के पेपर से बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने उनके पेपर का जर्मन में अनुवाद किया और उन्होंने एक जर्नल में छपवाया. इसके बाद बोस की पूरी दुनिया में धूम मच गई.''
परवेज़ हुदभाई ने कहा, ''पाकिस्तान से बांग्लादेश जाना बहुत मुश्किल काम है. इस्लामाबाद से दुबई जाओ और फिर वहाँ से ढाका.''
भारतीयों की तारीफ़ करते हुए हुदभाई ने कहा, ''अशोक सेन जाने-माने भौतिक विज्ञानी हैं लेकिन इतनी सादगी उनमें थी कि मैं देखकर हैरान रह गया. ढाका शहर में रिक्शे अब भी ख़ूब चलते हैं. मैं समझता था कराची से बदतर ट्रैफिक दुनिया में कहीं नहीं है लेकिन ढाका कराची से भी आगे है. सड़कें बिल्कुल बंद हो जाती हैं.''
''बांग्लादेश में महिला पुलिसकर्मी ख़ूब दिखती हैं. पाकिस्तान में ऐसा बिल्कुल नहीं है. यूनिवर्सिटी के पास ही रमना पार्क है. यहाँ लड़के-लड़कियां हाथ में हाथ डाले घूमते हैं. मैंने वहाँ के लोगों से पूछा कि क्या ढाका के बाहर भी ऐसा है तो लोगों ने बताया कि हाँ ऐसा ही है. पाकिस्तान में आपको यह बिल्कुल नहीं मिलेगा. बांग्लादेश में बुर्क़े मुझे ना के बराबर मिले.''
बांग्लादेश में इसी साल पाँच अगस्त को शेख़ हसीना सत्ता से बेदख़ल हुई थीं और उन्हें भारत आना पड़ा था.
परवेज़ हुदभाई कहते हैं कि शेख़ हसीना के ख़िलाफ़ नारों से ढाका की दीवारें भरी पड़ी हैं.
हुदभाई ने कहा, ''मैंने ढाका यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स से पूछा कि क्या वे भी हसीना विरोधी आंदोलन में शामिल थे? सबने हामी भरी कि हाँ शामिल थे. लोगों ने कहा कि वे आरक्षण को लेकर बहुत तंग थे. मैंने ढाका में लोगों से पूछा कि सत्येंद्रनाथ बोस ने ढाका क्यों छोड़ दिया था तो लोगों ने बताया कि 1940 के दशक में हालात बहुत ख़राब होने लगे थे.''
''ऐसा लग रहा था कि वहाँ से हिन्दुओं को निकाला जाएगा. लेकिन वैसा नहीं हुआ जैसा पंजाब में हुआ था और इसी का नतीजा था कि पंजाब यूनिवर्सिटी से सारे हिन्दू प्रोफ़ेसर चले गए. पंजाब यूनिवर्सिटी का जो आज हाल है, उसे देख लीजिए.''
परवेज़ हुदभाई ने कहा कि ढाका यूनिवर्सिटी कई मामलों में बहुत ही दिलचस्प है. कैंपस के भीतर एक मंदिर है और उसमें देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं.
हुदभाई ने कहा, ''यहाँ भगवान जग्गनाथ का मंदिर है. यहाँ बैठकर भी हमने बातें कीं. कैंपस में ही 30 फिट ऊंची बुद्ध की मूर्ति है. ये तो आठ साल पहले ही बनी थी. हम सोच भी नहीं सकते कि पाकिस्तान में कोई नया मंदिर बने. इस्लामाबाद में एक मंदिर बनाने की कोशिश की गई लेकिन लोगों ने रोक दिया. 1971 में ढाका यूनिवर्सिटी में जब पाकिस्तानी फौज पहुँची थी तो वहाँ के हॉस्टलों से छात्रों और प्रोफ़ेसरों को बुलाकर गोलियां मार दी थीं और वहीं गड्ढा खोदकर दफ़्न कर दिया था. ढाका यूनिवर्सिटी के कैंपस में ही इनकी याद में एक मेमोरियल बनाया गया है.''
बांग्लादेश के लोग अब पाकिस्तान के बारे में क्या सोचते हैं?
परवेज़ हुदभाई ने यही सवाल ढाका यूनिवर्सिटी के छात्रों से पूछा. इसके जवाब में वहाँ के छात्रों ने कहा, ''अब जुल्म की यादें कम हो गई हैं. वो तल्ख़ी अब नहीं है.''
Getty Images बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद युनूसहुदभाई कहते हैं, ''मैंने भी महसूस किया कि वो तल्ख़ी नहीं है. मेरे ख़्याल में हमें बांग्लादेश से माफ़ी मांगनी चाहिए. हमने कभी अपने आप से भी नहीं पूछा कि क्या ये ठीक हुआ था. 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों ने हथियार डाल दिए थे लेकिन किसी का कोर्ट मार्शल नहीं हुआ. हमने इससे कुछ भी नहीं सीखा और बलूचिस्तान में भी वह कर रहे हैं.''
बांग्लादेश 1971 में बन गया था लेकिन पाकिस्तान मान्यता देने से बच रहा था. 22 फ़रवरी 1974 को पाकिस्तान ने बांग्लादेश को मान्यता दे दी थी.
ज़ुल्फ़ीकार अली भुट्टो ने यह मान्यता ओआईसी समिट में ही देने की घोषणा की थी. पाकिस्तान पर मुस्लिम देशों का दबाव था कि वो बांग्लादेश को स्वीकार करे और मान्यता दे. मिस्र, इंडोनेशिया और सऊदी अरब का काफ़ी दबाव था.
इनका कहना था कि इस्लामिक दुनिया में एकता होनी चाहिए और इसके लिए ज़रूरी है कि पाकिस्तान बांग्लादेश को स्वीकार करे.
बांग्लादेश को मान्यता देने पर भुट्टो ने कहा था, ''मैं ये नहीं कहता कि मुझे यह फ़ैसला पसंद है. मैं ये नहीं कह सकता कि मेरा मन ख़ुश है. यह कोई अच्छा दिन नहीं है लेकिन हम हक़ीक़त को नहीं बदल सकते. बड़े देशों ने बांग्लादेश को मान्यता देने की सलाह दी लेकिन हम सुपरपावर और भारत के सामने नहीं झुके. लेकिन ये अहम वक़्त है. जब मुस्लिम देश बैठक कर रहे हैं, तब हम नहीं कह सकते कि दबाव में हैं. ये हमारे विरोधी नहीं हैं, जो बांग्लादेश को मान्यता देने के लिए कह रहे हैं. ये हमारे दोस्त हैं, भाई हैं.''
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