वादे हैं वादों का क्या
महाराष्ट्र की महायुति सरकार ने हालिया विधानसभा चुनावों में भारी जीत दर्ज करने के बाद जब सोमवार को अपना पहला बजट पेश किया तो उसके चुनावी वादों पर वित्तीय परेशानियों का बोझ साफ दिखा। चुनावों से पहले किए गए अपने बहुप्रचारित वादों - लाड़ली बहना योजना की राशि बढ़ाने और किसानों का लोन माफ करने - पर बजट में सरकार पीछे हटती दिखी। कर्ज का बोझ : पिछले साल लोकसभा चुनावों में महायुति को लगे झटके के बाद राज्य सरकार ने जो लोकलुभावन योजनाएं घोषित कीं, उनसे सरकारी खजाने पर करीब 96,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ा। नतीजा यह हुआ कि इस बार के बजट में अनुमानित कर्ज अब तक की सभी सीमाएं पार करते हुए 9.3 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। अनुमानित राजस्व घाटा यानी आमदनी और खर्च का अंतर भी बढ़कर 45,891 करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। मतदाताओं में मायूसी :
स्वाभाविक ही, राज्य सरकार के सामने उन वादों से पीछे हटने के सिवा कोई रास्ता नहीं था। लेकिन चुनाव से पहले महिला मतदाताओं का भरोसा जीतने के लिए तत्कालीन सरकार ने न केवल लाड़ली बहना योजना की राशि बढ़ाई बल्कि कुछ किस्तों का भुगतान भी तत्काल कर दिया। ऐसे में मजबूरियां चाहे जो भी हों, उन मतदाताओं में जरूर मायूसी है जो यह मानकर बैठे थे कि चुनाव के बाद भी सरकार वादे पूरे करने में भी वैसी ही तत्परता दिखाएगी। अन्य राज्यों का हाल :
महाराष्ट्र सरकार इस मामले में अकेली नहीं है। दिल्ली में भी महिलाओं को तत्काल 2500 रुपये महीना देना शुरू कर देने का वादा सत्तारूढ़ BJP के लिए भारी पड़ रहा है। पंजाब की भगवंत मान सरकार तो महिलाओं को 1100 रुपये महीना देने का वादा भी इन्हीं कारणों से चुनाव के तीन साल बाद भी पूरा नहीं कर पाई है। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार मुफ्त पेशकश वाले वादों के ही चलते 1.16 लाख करोड़ रुपये उधार लेने की सोच रही है, जिससे उसकी कुल देनदारी 7.64 लाख करोड़ रुपये हो जाएगी। रेवड़ी कल्चर :
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबे समय से रेवड़ी कल्चर के खिलाफ देश को सतर्क करते रहे हैं। यह अलग बात है कि उनकी पार्टी भी इस पर अमल नहीं कर पाई। लेकिन चुनाव से पहले वादे और चुनाव के बाद वादा तोड़ने की यह स्थिति पूरी राजनीतिक बिरादरी को मतदाताओं की नजर में संदिग्ध बना रही है। देश के राजनीतिक दलों के लिए यह विचारणीय मुद्दा होना चाहिए।
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