क्या चाहते हैं राहुल

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कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अहमदाबाद में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए जिस तरह की साफगोई दिखाई, उसे उनके किसी सामान्य बयान की तरह नहीं लिया जा सकता। सार्वजनिक तौर पर पार्टी नेताओं के एक हिस्से को विरोधी पार्टी से मिलीभगत का दोषी बताना किसी भी नेतृत्व के लिए जोखिम भरा काम है। कांग्रेस नेतृत्व ने यह जोखिम सोच-समझ कर ही उठाया होगा, लेकिन इसके पीछे वास्तव में उसकी कितनी तैयारी है, यह पार्टी के आगामी कदमों से स्पष्ट होगा। चुनावी नफा-नुकसान :
राहुल गांधी के बयान की कुछ बातें खास तौर से ध्यान देने लायक हैं। मसलन- उन्होंने पार्टी की विचारधारा को सर्वोच्च कसौटी बनाने की बात कहते हुए कार्यकर्ताओं से कहा कि इसे वे चुनावी हार-जीत से जोड़कर न देखें। जाहिर है, उनकी नजर इस बात पर है कि कांग्रेस सही अर्थों में बीजेपी का विकल्प बनी रहे। अन्य दलों से अलग : ध्यान देने की बात है कि राहुल गांधी अपने भाषणों में बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व की या बीजेपी की ही आलोचना तक खुद को सीमित नहीं रखते। वह बहस को सावरकर बनाम गांधी और संघ बनाम कांग्रेस की ओर ले जाने की कोशिश लगातार करते रहे हैं। विपक्षी ब्लॉक I.N.D.I.A. के अन्य दल और नेता इस मामले में उतने आक्रामक नहीं दिखते। इस लिहाज से अहमदाबाद में कही गई राहुल गांधी की बातें उनके दीर्घकालिक नजरिए के अनुरूप ही हैं। स्पष्ट विकल्प :
अगर राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी को अपनी इस लाइन पर संगठित करते हुए कथित बीजेपी समर्थक मन-मिजाज वाले नेताओं से पार्टी को मुक्त कर लेते हैं तो वोटरों के लिहाज से यह इस मायने में अच्छा होगा कि उनके सामने दोनों विकल्प पूरी तरह स्पष्ट होंगे। वे चाहें तो भारतीयता को लेकर संघ की दृष्टि को चुनें या कांग्रेस के नजरिए से सहमति दिखाएं या बारी-बारी दोनों को आजमाते रहें। लेकिन ऐसा नहीं होगा कि एक के भ्रम में दूसरे को चुन लें और छला हुआ महसूस करें। सबसे बड़ी परीक्षा :
बहरहाल, एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को हर चुनाव का सामना करना है। ऐसे में उसका नेतृत्व चाहे या न चाहे उसके हर कदम, हर फैसले को चुनावी कसौटी से गुजरना ही होगा। राहुल गांधी के ताजा बयान की भी सबसे बड़ी परीक्षा यही होगी कि दो साल बाद होने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव में वह पार्टी के लिए कितना फायदेमंद या नुकसानदेह साबित होता है।