तीन बार मौत की सज़ा मिलने के बाद मिली रिहाई, हत्या और बलात्कार की अनसुलझी कहानी

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Antariksh Jain 11 साल बाद जेल से बाहर आने के बाद अनोखीलाल कहते हैं कि मैं बहुत कुछ भूल चुका था. अब धीरे-धीरे कुछ चीज़ें याद आ रही हैं.

यह कहानी 11 साल पहले शुरू होती है. मध्य प्रदेश में नौ साल की लड़की के बलात्कार और हत्या के जुर्म में 21 साल के एक नौजवान को मौत की सज़ा मिलती है.

घटना और सज़ा के बीच महज़ एक महीने का फ़ासला होता है. यही नहीं, इसके बाद, दो और अदालतें भी उसे मौत की सज़ा देती हैं.

लेकिन, इस कहानी में इस साल मार्च में नया मोड़ आता है. खंडवा की ज़िला अदालत कहती है कि साक्ष्य का विश्लेषण ग़लत तरीक़े से किया गया था, अपराध किसी और ने किया था. उस शख़्स को इस जुर्म से बरी कर देती है.

पिछले दिनों बीबीसी की टीम उस व्यक्ति और पीड़िता के परिवार से मिलने और केस की बारीकियों को समझने के लिए मध्य प्रदेश गई. वहाँ से लौटकर यह रिपोर्ट लिखी गई है.

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BBC बरी होने वाले शख़्स का नाम अनोखीलाल

जब 11 साल बाद अनोखीलाल जेल से घर आए तो उनसे मिलने कई रिश्तेदार आए. मगर, अनोखीलाल अपने रिश्तेदारों को पहचान नहीं पाए.

यही नहीं, वे तो इतने दिनों में अपनी मातृभाषा कोरकू भी लगभग भूल गए थे.

उन्होंने मुझे बताया, "इन 11 सालों में, मैं बहुत कुछ भूल गया था." हालाँकि, अब धीरे-धीरे उन्हें कुछ-कुछ चीज़ें याद आ रही हैं.

अनोखीलाल ने क़रीब 11 साल या यों कहें 4,033 दिन बलात्कार और हत्या के मुजरिम के तौर पर मौत के साए में गुज़ारे.

यही नहीं, ये मुक़दमा अलग-अलग अदालतों से पाँच बार गुज़रा. तीन बार फाँसी की सज़ा हुई. छठी बार, खंडवा की ज़िला अदालत ने उन्हें बरी कर दिया.

आख़िर सालों बाद ऐसा फ़ैसला क्यों आया? उतार-चढ़ाव से भरी इस पूरी क़ानूनी प्रक्रिया ने अभियुक्त और पीड़िता के परिवार पर क्या असर डाला?

ऐसे ही सवालों के जवाब की तलाश में हम अनोखीलाल और पीड़िता के गाँव तक गए.

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Antariksh Jain पीड़िता की माँ ने पुलिस को बताया था कि उन्होंने अपनी बेटी को अनोखीलाल के साथ देखा था.

साल 2013 के तीस जनवरी की बात है. नौ साल की एक लड़की घर से बाहर जाती है पर लौटकर नहीं आती. घर वाले काफ़ी तलाशते हैं. नहीं मिलने पर पुलिस में गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ होती है.

लड़की के माता-पिता का कहना था कि उन्होंने उसे आख़िरी बार अनोखीलाल के साथ देखा था. गाँव के ही एक शख़्स ने बाद में कोर्ट के सामने भी इस बात की तस्दीक की.

अनोखीलाल उस वक़्त 21 साल के थे और गाँव में ही एक दूध बेचने वाले के यहाँ काम करते थे.

दो दिनों बाद लड़की की लाश एक खेत में मिलती है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चलता है कि लड़की के साथ बलात्कार हुआ था.

पुलिस अनोखीलाल को मुख्य आरोपी बनाती है. वे गिरफ़्तार कर लिए जाते हैं.

हालाँकि, अनोखीलाल का दावा है कि जब यह घटना हुई तो वे गाँव में नहीं थे.

यह घटना उस वक़्त सुर्ख़ियों में थी. इस घटना की रिपोर्ट करने वाले स्थानीय पत्रकार जय नागडा मुझे बताते हैं, "लोगों में बहुत ग़ुस्सा था. पुलिस और अदालत पर बहुत दबाव था."

इसके क़रीब एक महीने पहले ही दिल्ली में निर्भया के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना हुई थी.

पूरे देश में ग़ुस्सा था. हिंसा के ख़िलाफ़ और न्याय के लिए देश भर में प्रदर्शन हो रहे थे. लोगों की माँग थी कि बलात्कारियों को जल्द से जल्द, कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए.

कई पत्रकारों ने मुझे बताया कि निर्भया का ग़ुस्सा इस ज़िले और गाँव तक भी पहुँच गया था. शायद इसी का असर था कि यह केस बहुत तेज़ी से आगे बढ़ा.

महज़ नौ दिनों में पुलिस की तहक़ीक़ात पूरी हो जाती है. इसके तुरंत बाद अदालत में सुनवाई शुरू हो जाती है. यही नहीं, सिर्फ़ 13 दिनों में अदालत अनोखीलाल को फाँसी की सज़ा दे देती है.

कोर्ट का कहना था कि अनोखीलाल "समाज के लिए ख़तरा हैं".

अनोखीलाल कहते हैं, "ये सब बहुत तेज़ी से हुआ. न तो मुझे, न मेरे परिवार को और न ही मेरे वकील को कुछ समझने का वक़्त मिला कि आख़िर क्या हो रहा है."

अनोखीलाल एक आदिवासी समुदाय कोरकू से हैं. वे काफ़ी ग़रीब हैं. इसीलिए, मुक़दमे के लिए उन्हें सरकार की तरफ़ से एक वकील मिला. वकील और उनकी मुलाक़ात, केस की सुनवाई के पहले दिन ही हो पाई.

जब मैंने सुनवाई के बारे में उनसे जानना चाहा तब उन्होंने बताया कि उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है.

वे कहते हैं, "मैंने कभी स्कूल का चेहरा नहीं देखा था. मैं तो 10 साल की उम्र से ही काम कर रहा हूँ."

इसके बाद किसी ने बताया कि उन्हें मौत की सज़ा हुई है.

वे कहते हैं, "मेरे तो होश ही उड़ गए. मैं काँपने लगा. दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया. ख़ुद को संभालने में थोड़ा वक़्त लगा."

उस समय पुलिस का कहना था कि ये एक मुश्किल केस है. घटना का कोई प्रत्यक्ष गवाह नहीं था. परिस्थितिजन्य साक्ष्य के अलावा इस केस का मुख्य सुबूत डीएनए रिपोर्ट थी.

हालाँकि, जिस तेज़ी से सुनवाई हुई, उस वक़्त भी क़ानून के कई विशेषज्ञों ने उस पर सवाल उठाए थे.

जय नागड़ा ने मुझे अपनी एक रिपोर्ट दिखाई. इसमें वकीलों से बातचीत है. वकील कह रहे हैं कि इस फ़ैसले ने सुर्ख़ियाँ तो बटोर लीं, लेकिन सवाल है कि क्या इस मामले में इंसाफ़ हुआ?

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इसके बाद यह केस देश की अलग-अलग अदालतों में पहुँचा. एक बहुत लंबा सफ़र शुरू हुआ. साल 2013 में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने भी मौत की सज़ा को सही ठहराया.

अनोखीलाल के लिए सज़ा के बाद के दिन बेहद मुश्किल भरे थे. वे काफ़ी निराशा में थे.

वे बताते हैं, "मैं खाना नहीं खा पा रहा था. मैंने तय कर लिया था कि मैं अपनी जान ले लूँगा. मुझे मौक़ा नहीं मिला वरना मैं आत्महत्या कर लेता."

(मौत की सज़ा पाने वाले बंदियों में मानसिक बीमारियों का स्तर बहुत ज़्यादा है. के एक अध्ययन में पाया गया था कि मौत की सज़ा पाने वाले 80 बंदियों में क़रीब 62 फ़ीसदी मानसिक तौर पर बीमार थे.)

हाईकोर्ट के बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा.

छह साल बाद 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले की सुनवाई में कई तरह की खामियाँ थीं.

बचाव पक्ष के वकील उसी दिन नियुक्त हुए जिस दिन सुनवाई शुरू हो रही थी. उनके पास केस से जुड़े दस्तावेज़ों को देखने का वक़्त नहीं था.

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि इस पूरे केस की सुनवाई दोबारा शुरू से हो.

अनोखीलाल कहते हैं, "इससे मुझे कुछ उम्मीद जगी."

इस वक़्त तक वे जेल की ज़िंदगी से समझौता भी करने लगे थे. अब आत्महत्या के ख़्याल भी कम आते थे.

वे कहते हैं, "मेरे कुछ-एक दोस्त भी बन गए थे. इनसे मुझे बहुत मदद मिली."

वे बताते हैं, "मुझे वहाँ किसी ने कहा था कि मुझे अपने समय का सही इस्तेमाल करना चाहिए ताकि जब मैं बाहर आऊँ तो मुझे ये न लगे कि मैंने समय बर्बाद कर दिया."

यह सोच कर उन्होंने जेल के अंदर दोबारा अपनी पढ़ाई शुरू की और दसवीं क्लास की परीक्षा पास की.

अनोखीलाल ने अपने जीवन में अगर किसी एक जगह सबसे ज़्यादा वक़्त गुज़ारा तो वह इंदौर का सेंट्रल जेल था.

वे कहते हैं, "मैंने वहाँ पढ़ाई के साथ-साथ योग और पूजा भी शुरू कर दी थी. इसकी वजह से मेरी मानसिक हालत काफ़ी बेहतर हुई."

लेकिन, उम्मीद की किरण बहुत जल्द ही धुँधली हो गई. साल 2022 में खंडवा की स्थानीय अदालत ने उन्हें दोबारा फाँसी की सज़ा सुनाई.

इस मोड़ पर प्रोजेक्ट-39ए से जुड़े लोग अनोखीलाल के केस से जुड़ते हैं. प्रोजेक्ट-39ए एक शोध और पैरवी करने वाला संगठन है.

यह मुख्यतः मौत की सज़ा पाए लोगों के केसों पर काम करता है. उन्हें क़ानूनी मदद देता है.

अनोखीलाल बताते हैं, "इतने दिनों में कोई वकील मुझसे मिलने जेल में नहीं आया था. ये लोग पहले थे, जो मुझसे मिलने आए."

प्रोजेक्ट-39ए ने मौत की सज़ा के फ़ैसले के ख़िलाफ़ फ़िर से मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में अपील की.

अनोखीलाल के वकील का कोर्ट में कहना था कि जिस डीएनए रिपोर्ट पर पूरा केस आधारित है, उसमें कई ख़ामियाँ हैं.

पिछले दस सालों में अलग-अलग अदालतों में हुई सुनवाई के दौरान ये ख़ामियाँ नहीं देखी गई थीं.

उन्होंने हाईकोर्ट से कहा कि इस रिपोर्ट के सारे दस्तावेज़ कोर्ट में जमा कराए जाएँ.

यही नहीं इन्हें तैयार करने वाले विशेषज्ञों से पूछताछ करने के लिए कोर्ट में बुलाया जाए. हाईकोर्ट ने उनकी याचिका के आधार पर मामले को तीसरी बार ट्रायल कोर्ट के पास भेजा.

यानी यह केस साल 2013 में जहाँ से चला था, वहीं वापस पहुँच गया.

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सिर्फ़ डीएनए रिपोर्ट को बारीकी से देखे जाने पर कई चौंकाने वाली चीज़ें बाहर निकलीं. इनसे केस में बड़ा बदलाव आ गया.

सबसे बड़ी बात तो यह पता चली कि लड़की के यौन अंगों से मिला डीएनए अनोखीलाल का नहीं था. यह किसी और पुरुष का था. अब तक, कोर्ट ने भी माना था कि यह डीएनए 'किसी पुरुष' का ही है.

इसलिए यह अनोखीलाल का भी हो सकता है. बाक़ी साक्ष्य भी जुर्म के लिए अनोखीलाल की तरफ़ इशारा कर रहे हैं. इसीलिए उन्होंने अपराध के लिए अनोखीलाल को दोषी माना था.

हालाँकि, इस बार कोर्ट ने कहा कि यह साफ़ दिख रहा है कि डीएनए किसी और का है.

पुलिस के बाकी सबूतों पर भी कोर्ट ने कई सवाल खड़े किए. कपड़ों और बालों से मिले हुए डीएनए को पुलिस ने अनोखीलाल का बताया था.

कोर्ट ने कहा कि इनको इकट्ठा करने और परखने में कई ग़लतियाँ हुई थीं. इन सुबूतों के साथ 'आसानी से छेड़छाड़' की जा सकती है.

इसलिए पुलिस को यह साबित करना चाहिए था इनके साथ किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं हुई है. इसमें वे नाकाम रहे हैं. ...और यह कहते हुए जिस स्थानीय अदालत ने साल 2013 और 2022 में मौत की सज़ा सुनाई थी, उसी ने उन्हें बरी कर दिया.

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अनोखीलाल कहते हैं, ''जब मैं जेल से बाहर आया तो बहुत कुछ बदल गया था. देश बहुत बदल गया था. सड़कें बदल गई थीं. कई नई इमारतें थीं. कुछ दिन तो ऐसा लगा कि क्या मैं कोई सपना देख रहा हूँ?"

दूसरी ओर, अदालत से कई सौ किलोमीटर दूर बैठे उस बच्ची के पिता हमें बताते हैं कि उन्हें पता तक नहीं था कि अनोखीलाल को बरी कर दिया गया है.

वे मुझसे कहते हैं, "मुझे तो किसी अनजान आदमी ने फ़ोन करके इसके बारे में बताया."

जब वे इस केस, पुलिस और न्याय व्यवस्था के बारे में बात करते हैं तो उनकी आवाज़ से गहरा दुख और ग़ुस्सा साफ़ झलकता है. वे कहते हैं कि देश की न्याय व्यवस्था से उनका विश्वास उठ गया है.

वे कहते हैं, ''हमारे ग़ुस्से को शांत करने के लिए उसे मौत की सज़ा दे दी थी. अब वह बाहर आ गया है. पूरी व्यवस्था में लापरवाह लोग भरे पड़े हैं.''

उन्हें यह बात बहुत खलती है कि काश उनके पास पैसे होते तो वे केस के लिए अपना एक निजी वकील रखते. वे कहते हैं, "सबसे बड़ी दिक़्क़त तो ये है कि मैं एक ग़रीब आदमी हूँ."

ग्यारह साल बाद आज भी उनके घाव भरे नहीं हैं. उन्हें यह घटना परेशान करती रहती है.

वे बोलते हैं, "मेरी सबसे बड़ी लड़की थी. बहुत लाडली थी मेरी. बिल्कुल मेरे जिगर का टुकड़ा."

"मैं तो सालों से घुटन में जी रहा हूँ. कभी अख़बार या टीवी पर इस तरह की घटना की ख़बर पढ़ता हूँ तो वापस उसकी याद आ जाती है. इसलिए, मैंने अब ये सब देखना ही छोड़ दिया है."

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यही नहीं, अनोखीलाल भी उस पूरी व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं, जिसकी वजह से वे 11 साल मौत के साए में रहे.

अनोखीलाल कहते हैं कि अब उन्हें आज़ादी का असली मतलब समझ में आता है.

वे कहते हैं, "आज़ादी बहुत बड़ी चीज़ है. अगर मैंने अपनी जान ले ली होती होती तो क्या होता? सभी यही सोचते कि मैंने अपराध किया है और इसीलिए अपनी जान ले ली.''

''इस केस ने मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी. समाज की नज़र में तो मैं आज भी गुनहगार हूँ. मुझे अब भी बहुत चीज़ों में दिक़्क़त आएगी. जैसे- शादी करने में."

वे शिकायत करते हैं, "मुझे आख़िर में क्या इंसाफ़ मिला? मेरी ज़िंदगी के 11 साल तो गए. उसकी भरपाई कौन करेगा? मेरे सारे दोस्त अपने-अपने काम में आगे बढ़ गए. उनके परिवार हो गए. बच्चे बड़े हो गए. मैं तो वहीं का वहीं रह गया."

इस केस का असर अनोखीलाल पर ही नहीं, बल्कि उनके पूरे परिवार पर पड़ा है. अपनी झोपड़ी के सामने बैठी अनोखीलाल की माँ और भाई हमसे बात करते हैं.

ये बताते हैं कि परिवार में पैसों की दिक़्क़त पहले से ही थी. इस केस ने उसे और बढ़ा दिया.

केस की शुरुआत में उन्हें अपनी आधी ज़मीन बेचनी पड़ी. इससे मिला पैसा भी बहुत जल्द ही ख़त्म हो गया.

अनोखीलाल के भाई तेजराम कहते हैं, "हमारे पिता मानसिक रूप से परेशान रहने लगे. वे बहुत रोते और कहते थे कि मेरी ज़मीन भी गई और लड़का भी नहीं आया. इस केस की चिंता में घुल-घुलकर उनकी मौत हो गई."

इन सबकी वजह से परिवार की उम्मीदें भी कम हो रही थीं. उनकी माँ रीमाबाई कहती हैं, "कुछ समय बाद तो मुझे बस यही लगता रहता था कि मेरे बेटे को फाँसी होने वाली है."

जब पैसे ख़त्म हो गए तो उन्होंने सारी उम्मीद छोड़ दी थी. तेजराम कहते हैं, "मैंने वकील साहब को कहा कि मेरे लिए अब और पैसा देना मुमकिन नहीं है. मेरा भाई बाहर आए तो ठीक, वरना अब सब भगवान के हाथ में है."

धीरे-धीरे अनोखीलाल से जेल में मिलने जाने में भी दिक़्क़तें होने लगीं. तेजराम बताते हैं, "पैसे नहीं रहते थे. मैं जब अपने भाई से मिलने जाता था तो रेलवे प्लेटफार्म पर ही सो जाता था."

अनोखीलाल कहते हैं, "ये सब देखते हुए मैंने भी घर वालों को आने से मना कर दिया."

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अनोखीलाल कहते हैं कि बाहर वापस आने के बाद उनकी ज़िंदगी पहले जैसी नहीं रही. अब वे मध्य प्रदेश में ही अलग-अलग तरह की मज़दूरी का काम कर रहे हैं.

वे बताते हैं, "अब मैं कहीं ज़्यादा बाहर नहीं जाता. मैं अब रात में बाहर जाना पसंद नहीं करता. सुबह काम पर जाता हूँ और शाम में वापस अपने कमरे में आ जाता हूँ. अगर कुछ ख़रीदारी करनी होती है तो साथी कर देते हैं." किराये के एक कमरे में वह अपने एक दोस्त के साथ रहते हैं.

पुराने दोस्तों से उनका संपर्क टूट चुका है. वे कहते हैं, "मुझे बाहर आने के बाद किसी से मिलने का वक़्त ही नहीं मिला. पैसे कमाने के लिए, आते ही बस काम पर लग गया."

"अब मैं पहले की बात भुला कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ. पैसे कमाने हैं ताकि परिवार का क़र्ज़ चुका सकूँ. अपने घर पर प्लास्टर करवा सकूँ."

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लेकिन, सबसे बड़ा सवाल तो बचा ही है Antariksh Jain श्रेया रस्तोगी वकील हैं. वो कहती हैं भारत में अभी फॉरेंसिक और डीएनए की समझ बहुत कम है.

इस केस से जुड़े हुए अब भी कई सवाल हैं. एक सवाल तो यह है कि डीएनए रिपोर्ट में ऐसी ख़ामियाँ थीं तो उसका पता 11 साल तक क्यों नहीं चला?

श्रेया रस्तोगी वकील हैं और प्रोजेक्ट-39ए से जुड़ी हुई हैं. उन्होंने ही बाद में अनोखीलाल का केस लड़ा.

वे बताती हैं कि जब तक वे लोग इस केस से नहीं जुड़े थे तब तक फॉरेंसिक सुबूतों की गहराई से पड़ताल नहीं की गई थी.

वे कहती हैं भारत में अभी फॉरेंसिक और डीएनए की समझ बहुत कम है. उनका मानना है कि पुलिस, वकील और कोर्ट के साथ भी दिक़्क़त है. इसके बारे में बेहतर ट्रेनिंग करवाने की ज़रूरत है.

श्रेया रस्तोगी ने हमें एक किताब दिखाई. डीएनए सुबूत की व्याख्या करने और समझने के लिए उन्होंने कोर्ट में इस किताब को पेश किया था. कुछ मायनों में यह स्कूल की विज्ञान की पुस्तक की तरह थी.

इसमें डीएनए क्या होता है या कोशिका क्या होती है- इन सबकी व्याख्या थी. वे कहती हैं कि यह सब इसलिए करना पड़ा ताकि अदालत को समझाया जा सके कि डीएनए रिपोर्ट में क्या ग़लतियाँ थीं.

हालाँकि, 11 साल बाद सबसे बड़ा सवाल आज भी क़ायम है- आख़िर अपराधी कौन है? अब इसमें क्या इंसाफ़ मिलेगा? उस बच्ची के बलात्कार और हत्या के अपराधी कौन थे?

श्रेया रस्तोगी कहती हैं कि इसकी संभावना बेहद कम है कि डीएनए नमूने ठीक से रखे गए हों, ताकि उनकी जाँच फिर कराई जा सके. इस केस का मुख्य सुबूत तो डीएनए ही था.

श्रेया रस्तोगी के मुताबिक, इस केस में पुलिस, फॉरेंसिक टीम और यहाँ तक कि कोर्ट से भी चूक हुई.

खंडवा के एसपी मनोज राइ ने हमसे कहा कि उन्होंने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में फिर से एक याचिका दायर की है. हालाँकि, अभी कोर्ट ने उसे स्वीकार नहीं किया है.

अनोखीलाल का कहना है कि मीडिया ने भी इस मामले में ठीक से रिपोर्टिंग नहीं की थी. उनकी शिकायत है, "उन्होंने तो मुझे शुरू से ही अपराधी बना दिया था."

ये कई मायने में चौंकने वाला केस है पर ये ऐसा अकेला नहीं है.

प्रोजेक्ट-39ए का एक शोध बताता है कि साल 2000 से 2015 के बीच जिन 1,498 लोगों को मौत की सज़ा मिली, उनमें 443 यानी क़रीब 30 फ़ीसदी लोगों को बाद में बरी कर दिया गया.

यही नहीं, 970 यानी क़रीब 65 फ़ीसदी लोगों की सज़ा कम कर दी गई.

इससे जाँच एजेंसियों की तहक़ीक़ात और न्याय प्रणाली पर कई गंभीर सवाल उठते हैं. ख़ासतौर पर निचली अदालतों पर सवाल उठते हैं. आख़िर जब वे फाँसी की सज़ा सुनाती हैं तो कितना इंसाफ़ करती हैं.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.

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