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सुशील कुमार शिंदे: चपरासी से लेकर गृह मंत्री बनने तक का सफ़र

Getty Images सुशील कुमार शिंदे (फ़ाइल फ़ोटो)

आत्मकथाओं में अक्सर लोग अपने बारे में अच्छी-अच्छी बातें ही लिखते हैं.

लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और भारत के गृह मंत्री रहे सुशील कुमार शिंदे की आत्मकथा काफ़ी दिलचस्प है क्योंकि वे ऐसी कोई कोशिश करते नहीं दिखते.

हाल ही में प्रकाशित अपनी आत्मकथा 'फ़ाइव डेकेड्स इन पॉलिटिक्स' में सुशील कुमार शिंदे बताते हैं कि उनका बचपन बहुत ग़रीबी में बीता था.

उन दिनों वो आवारा हुआ करते थे और अच्छा खाने के लिए छोटी-मोटी चीज़ों को चुराकर बेच देना उनके लिए आम बात थी.

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इसी तरह के कुछ आवारा लड़कों के साथ उन्होंने एक गैंग बना लिया था और वो सड़क पर सामान बेचने वाले लोगों को अपना निशाना बनाया करते थे.

शिंदे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं,''एक महिला जो सड़क के किनारे बैठकर छोटी-मोटी चीजें बेचती थीं, वो थोड़ी देर के लिए कहीं चली गई. मैंने ये सोचकर कि मुझे कोई नहीं देख रहा है, उसकी कुछ चीज़ें चुरा लीं. लेकिन सड़क के दूसरी ओर बैठे कुछ दुकानदारों ने मुझे ऐसा करते और भागते हुए देख लिया था. जब वो लौट कर आई तो उन्होंने उस महिला को बताया कि एक गोरे लड़के ने तुम्हारा कुछ सामान उठाया है. वो महिला मेरे घर पहुंच गई.''

भगवान की मूर्ति के सामने चोरी न करने का प्रण Getty Images सुशील कुमार शिंदे ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्हें बचपन में चोरी करने की आदत पड़ गई थी.

उनकी मां ने महिला के आरोपों को मानने से इनकार कर दिया और महिला से कहा कि मेरा लड़का इतनी ओछी हरकत नहीं कर सकता. उस महिला ने अपने आँसू रोकते हुए शिंदे से कहा, ''मैं समझती थी कि तुम एक अच्छे लड़के हो.''

शिंदे आगे लिखते हैं,''महिला के जाने के बाद मुझे पर बहुत बुरा महसूस हुआ, मेरी माँ ने शायद ग्लानि से भरे मेरे चेहरे को पढ़ लिया था. उन्होंने मुझे ज़ोर का थप्पड़ लगाया. वो मुझे उस कमरे में ले गईं जहाँ भगवान की मूर्ति रखी रहती थी. उन्होंने मुझे उनके सामने खड़ा कर पूछा, अब सही सही बताओ, क्या हुआ था? भगवान के सामने झूठ बोलने की जुर्रत मत करना. मुझे अपना अपराध स्वीकार करना पड़ा. मेरी माँ मुझे लेकर उस महिला के पास गईं और मुझे सबके सामने उसके पास से चुराई गई चीज़ें उसे लौटानी पड़ी.''

शिंदे लिखते हैं कि इस घटना के बाद उन्होंने भगवान की मूर्ति के सामने चोरी न करने का प्रण किया और चोरी करना छोड़ दिया.

टॉफ़ी फ़ैक्ट्री में नौकरी से शुरू किया अपना करियर

अच्छी चीज़ें खाने की ललक तब भी नहीं गई, उनके पास अच्छा खाना खाने के पैसे नहीं होते थे, उन्होंने छोटे ढाबों पर छोड़े गए खाने को खाना शुरू कर दिया.

एक दिन एक दुकानदार ने उन्हें ऐसा करते हुए देख लिया. शिंदे लिखते हैं,''उसने मुझे धिक्कारते हुए कहा कि तुम्हारे पिता अमीर आदमी हुआ करते थे जो दूसरों को खाना खिलाते थे. तुम्हें भिखारियों जैसी हरकत करते शर्म आनी चाहिए. उसके तीखे शब्दों ने मुझ पर बहुत असर डाला और मैंने वो ख़राब आदत भी छोड़ दी.''

परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी इसलिए उस समय जब बच्चों के खेलने-कूदने की उम्र होती है शिंदे ने एक टॉफ़ी फ़ैक्ट्री में 10 रुपए महीने की तन्ख़वाह पर नौकरी शुरू की.

वो अपना पूरा वेतन अपनी माँ को दे देते और वो उसमें से एक रुपया निकालकर उन्हें जेब खर्च के तौर पर दे देतीं.

फिर उन्होंने शोलापुर के मशहूर डाक्टर विष्णु गणेश वैशंपायन के यहाँ 12 रुपए महीने पर बच्चों की देखभाल करने की नौकरी शुरू की.

दलित होने के कारण भेदभाव PRABHA KHAITAN FOUNDATION सुशील कुमार शिंदे की किताब का विमोचन

दलित परिवार से आने के कारण उन्हें कई बार भेदभाव का शिकार होना पड़ा. एक महिला के यहाँ जहाँ वो नौकरी करते थे उन्हें सस्ती धातु की प्लेट पर खाना दिया जाता जबकि परिवार के सभी लोग कांच की प्लेट में खाना खाते थे.

एक बार घर लौटते समय उन्हें बहुत प्यास लगी. उन्होंने एक व्यक्ति से उन्हें पानी पिलाने के लिए कहा. उसने उनसे उनकी जाति पूछी.

जब उन्होंने अपनी जाति बताई तो उसकी भाव भंगिमा बदल गई. उसने उन्हें एल्यूमिनियम के बरतन में पानी दिया और उसको इस तरह से उनके मुँह में डाला ताकि वो बर्तन उनके मुँह से छू न जाए.

एक बार वो अपने चचेरे भाई से मिलने शोलापुर से 10 किलोमीटर दूर धोत्री गाँव गए. रास्ते में उन्होंने धूप से परेशान होकर एक तालाब में डुबकी लगा ली.

शिंदे लिखते हैं,''थोड़ी देर बाद जब मैं अपने भाई के यहाँ आराम कर रहा था, मुझे बाहर कुछ शोर सुनाई दिया. गाँव वाले बहुत नाराज़ थे कि ढोर जाति के एक व्यक्ति ने तालाब के पानी से नहाकर उसे गंदा कर दिया है. जब मैंने कहा कि मैं जातिवाद में यकीन नहीं करता तो भीड़ और आगबबूला हो गई. आख़िरकार ये तय हुआ कि एक पुजारी को बुलाकर तालाब की शुद्धि कराई जाए. मुझे कोई शारीरिक चोट तो नहीं पहुंची लेकिन इस घटना ने मेरे अंतर्मन पर बहुत बुरा असर डाला.''

महबूब स्टूडियो के चौकीदार ने भगाया

इस बीच शिंदे नौकरी के साथ साथ पढ़ाई भी करते रहे हालाँकि वो हाईस्कूल में दो बार फ़ेल हुए. बीस साल की उम्र में इंटरमीडिएट पास किया.

पहले उन्हें एक चपरासी की नौकरी मिली फिर वो 150 रुपए महीने के वेतन पर एक कोर्ट में बेंच क्लर्क हो गए.

पढ़ाई के दौरान उन्हें अभिनय और भाषण देने का शौक चर्राया. उन्होंने कालेज के कई नाटकों में काम किया. कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि उनकी शक्ल राज कपूर से मिलती है. अभिनय का शौक इस हद तक गया कि अपने दोस्तों के कहने पर अपना भाग्य आज़माने के लिए उन्होंने बॉलीवुड का भी रुख़ किया.

लेकिन उस समय उन्हें बहुत बड़ा धक्का लगा जब महबूब स्टूडियो को चौकीदार ने उन्हें स्टूडियो के गेट के अंदर नहीं घुसने दिया. सालों बाद जब उन्हें महाराष्ट्र सरकार में संस्कृति मंत्रालय दिया गया तो उन्हें कई फ़िल्मों के क्लैप देने के लिए बुलाया जाता था.

शिंदे लिखते हैं,''एक बार जब मैंने मंच पर साथ बैठे दिलीप कुमार को अपनी आपबीती बताई तो हम दोनों बहुत जोर से हँसे. बाद में उन्होंने एक लेख में लिखा, कभी दरबान ने इनको रोका था, अब ये हमें रोकते हैं.''

पुलिस में सब इंस्पेक्टर की नौकरी Getty Images रिजर्व बैंक के पूर्व गर्वनर सी. रंगराजन (बाएं) के साथ सुशील कुमार शिंदे

इस दौरान उन्होंने अपने एक मित्र सुभाष वेलेकर के कहने पर पुलिस में सब-इंस्पेक्टर के पद का आवेदन कर दिया. उन्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया गया और उनका पुलिस में चयन हो गया.

अब उनका वेतन बढ़कर 350 रुपए हो चुका था और उन्हें रहने के लिए एक सरकारी घर भी आवंटित हो गया था. पुलिस की नौकरी के दौरान उनका कई बड़े लोगों से मिलना-जुलना शुरू हो गया.

इसी कड़ी में उनकी मुलाकात उस समय महाराष्ट्र की राजनीति में तेज़ी से उभर रहे शरद पवार से हुई. कुछ दिनों की मुलाकात के बाद पवार ने उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया.

उन्होंने पुलिस की नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया. जब 1972 में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए यशवंत राव चव्हाण ने शरद पवार के कहने पर आरक्षित चुनाव क्षेत्र कर्मला से उनका नाम प्रस्तावित किया

आलाकमान ने टिकट काटा

शिंदे के दोस्त मानकर चल रहे थे कि उन्हें टिकट मिलना अब तय ही है.

शिंदे लिखते हैं,''इस झटके के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था जब कांग्रेस आलाकमान ने मेरी जगह तैयप्पा सोनावने को कर्मला से उम्मीदवार बना दिया. सोनावने पूर्व सांसद थे. ऐसा करने का कोई कारण नहीं बताया गया था लेकिन मुझे बाद में पता चला कि बाबू जगजीवन राम ने सोनावने के अनुभव को देखते हुए उनकी सिफ़ारिश की थी. मेरा दिल ज़रूर टूटा लेकिन इस फ़ैसले पर सवाल उठाने का विचार मेरे मन में कभी नहीं आया.''

सोनावने का नवंबर, 1973 में निधन हो गया. रिक्त हुए स्थान पर होने वाले उप चुनाव के लिए राज्य इकाई ने उनका नाम फिर प्रस्तावित किया.

इस बार कोई अड़ंगा नहीं लगा और आलाकमान ने उनके नाम को मंज़ूरी दे दी.

1973 में विधानसभा पहुँचने से शुरू हुआ उनका सियासी करियर आगे बढ़ता गया.

उप-राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा Getty Images पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ सुशील कुमार शिंदे

वसंतराव नायक ने उन्हें कल्याण राज्य मंत्री के तौर पर अपने मंत्रिमंडल में जगह दे दी. धीरे-धीरे राज्य की राजनीति में उन्होंने अपनी पैठ जमानी शुरू कर दी और हाईकमान की नज़र में उनका रुतबा बढ़ने लगा.

एक समय ऐसा भी आया कि जब वो इंदिरा गाँधी से मिलने दिल्ली आए तो उनके सचिव आरके धवन ने उन्हें इंदिरा से मिलने के लिए तुरंत अंदर भेज दिया जबकि बाहर नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह जैसे वरिष्ठ नेता पीएम से मिलने का इंतज़ार कर रहे थे.

नरसिम्हा राव जब प्रधानमंत्री बने तो वो उन्हें कांग्रेस का महासचिव बना कर दिल्ली लाए और उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य भी बना दिया गया.

उनको बिहार और मध्य प्रदेश के साथ साथ 11 अन्य राज्यों की ज़िम्मेदारी दी गई. सन 2002 में सोनिया गाँधी ने उन्हें भारत के उपराष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया. लेकिन एनडीए के उम्मीदवार भैरो सिंह शेखावत ने उन्हें हरा दिया.

सन 2003 में सुशील कुमार शिंदे को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ दिलाई गई.

सन 2004 का चुनाव जीतने के बावजूद उनके स्थान पर विलासराव देशमुख को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया गया. तर्क ये दिया गया कि देशमुख सहयोगी दल एनसीपी से ज़्यादा बेहतर तरीक़े से निपट पाएंगे.

सोनिया ने बनाया भारत का गृह मंत्री
Getty Images सोनिया के विश्वासपात्र रहे सुशील कुमार शिंदे

इसके बाद सुशील शिंदे को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया. जब 2006 में उनका कार्यकाल समाप्त हुआ मनमोहन सिंह ने उन्हें केंद्र में ऊर्जा मंत्री की ज़िम्मेदारी दी.

जुलाई, 2012 में उन्हें केंद्र सरकार में गृह मंत्री बनाया गया. एक ज़माने में पुलिस सब इंस्पेक्टर के पद पर रहे सुशील कुमार शिंदे का गृह मंत्रालय की चोटी के पद पर पहुंचना एक बड़ी बात थी.

उनके सामने पहली चुनौती तब आई जब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने संसद पर हुए हमले के लिए मौत की सज़ा पा चुके अफ़ज़ल गुरू की दया याचिका अस्वीकार कर दी.

मामले की गोपनीयता को देखते हुए शिंदे ने तिहाड़ जेल की महानिदेशक विमला मेहरा, गृह सचिव आरके सिंह और तिहाड़ जेल के जेलर सुनील गुप्ता की बैठक बुलाई.

शिंदे लिखते हैं, ''तमाम तैयारी के बावजूद मैं स्वीकार करता हूँ कि गृह सचिव के दफ़्तर ने अफ़ज़ल गुरु को फ़ाँसी दिए जाने के बारे में उसके परिवार को सूचित करने में देरी कर दी. इस गलती की वजह से अफ़ज़ल गुरु का परिवार उनसे आख़िरी बार नहीं मिल पाया. लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है, अफ़ज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने के मामले से मेरी कोई निजी या भावनात्मक भागीदारी नहीं थी.''

गृह मंत्री रहते हुए लाल चौक पर घूमे HARPER COLLINS रॉ के प्रमुख एएस दुलत ने अपनी आत्मकथा 'अ लाइफ़ इन द शैडो' में सुशील कुमार शिंदे के लाल चौक दौरे का ब्योरा दिया है.

सुशील कुमार शिंदे का मानना है कि लोकपाल के मुद्दे पर अन्ना हज़ारे के आंदोलन ने मनमोहन सिंह सरकार को बहुत चोट पहुंचाई.

शिंदे लिखते हैं,''मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि अन्ना हज़ारे का आरएसएस और बीजेपी ने भरपूर इस्तेमाल किया. तथाकथित सिविल सोसाएटी के कई सदस्य उनके कुटिल अभियान का मोहरा बन गए. मैं उम्मीद करता हूँ कि एक दिन अन्ना हजारे ये कहने की हिम्मत जुटा पाएं कि उन्हें किस तरह संघ परिवार ने चकमा दिया.''

सन 1990 के बाद सुशील शिंदे भारत के पहले गृह मंत्री बने थे जिन्होंने श्रीनगर के लाल चौक का दौरा किया.

शिंदे ने अपनी जीवनी में लिखा, ''नवंबर, 2012 में मैंने श्रीनगर में पोलो व्यू सिटी सेंटर का दौरा किया. मैं एक निजी कार में वहाँ गया जिसे उस समय के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह चला रहे थे. वहाँ मैं लोगों से मिला और साधारण पर्यटक की तरह मैंने कश्मीरी सूटों और फलों की ख़रीदारी की. मैंने वहाँ आइसक्रीम भी खाई जो उमर हमारे लिए ख़रीद लाए थे. हमने शहर का भी दौरा किया और अपने साथ सिर्फ़ एक एसकॉर्ट वाहन ले गए. इस बारे में हमने सुरक्षा अधिकारियों को बिल्कुल नहीं बताया. पूरी यात्रा के दौरान हमने ये सुनिश्चित किया कि आम लोगों की ज़िदगी में कम से कम व्यवधान हो.''

अपनी आत्मकथा में तो शिंदे ने इसका कोई ज़िक्र नहीं किया लेकिन पुस्तक के विमोचन के मौके पर बोलते हुए उन्होंने स्वीकार किया, ''लोग सोच रहे थे कि ये कैसा गृह मंत्री है जो लाल चौक पर बेख़ौफ़ घूम रहा है लेकिन मैं ये किसको बताता कि अंदर ही अंदर मेरी फूँक सरकी हुई थी.''

उनकी इस श्रीनगर यात्रा को काफ़ी दिनों तक याद रखा गया. रॉ के प्रमुख एएस दुलत ने अपनी आत्मकथा ‘अ लाइफ़ इन द शैडो’ में लिखा, ''भारत धीरे-धीरे शिंदे और वाजपेयी जैसे नेताओं को भूलता जा रहा है लेकिन कश्मीर में उनको अभी तक नहीं भुलाया गया है. वाजपेयी की तरह शिंदे ने भी उन्हें उम्मीद की किरण दी."

शरद पवार और बाल ठाकरे की तारीफ़ Getty Images शरद पवार (बाएं) के साथ सुशील कुमार शिंदे

इस पूरी आत्मकथा में शिंदे ने शरद पवार की काफ़ी तारीफ़ की है, उन्होंने उन्हें खुद को राजनीति में लाने का श्रेय दिया है. वैचारिक रूप से उनसे दूरी होते हुए भी वो उनके राजनीतिक कौशल की क़द्र करते हैं.

शिंदे का मानना है कि ये पवार का ही बूता था कि उन्होंने कांग्रेस को उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में बन रही सरकार का हिस्सा बनने के लिए तैयार किया.

शिंदे लिखते हैं, ''मुझे ये स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है कि पवार ने मुझ जैसे राजनीति में अनाड़ी शख़्स को राजनीति का क ख ग सिखाया. उन्हें मुझे यहाँ तक सिखाया कि किस तरह हाथ जोड़ कर नमस्ते की जाती है और किस तरह भीड़ को देख कर हाथ हिलाया जाता है. मैं उनके नाम के आगे हमेशा ‘साहब’ लगाता हूँ जबकि हम दोनों करीब-करीब एक ही उम्र के हैं.''

बाल ठाकरे के लिए शिंदे के मन में 'सॉफ़्ट कॉर्नर' है.

वो लिखते हैं, ''जब मैंने मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के लिए उप चुनाव लड़ा तो ठाकरे ने शोलापुर विधानसभा क्षेत्र से मेरे ख़िलाफ़ शिव सेना का उम्मीदवार खड़ा न करने का प्रस्ताव दिया.''

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