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संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसराइल के ख़िलाफ़ वोटिंग से भारत की दूरी का कारण क्या है?

Getty Images 19 सितंबर को ग़ज़ा के बुरेजी रिफ़्यूजी कैंप पर इसराइली हमले के बाद एक ध्वस्त हो चुकी इमारत के सामने अपने बच्चे के साथ खड़ी महिला

बुधवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसराइल के ख़िलाफ़ लाए गए प्रस्ताव पर हुई वोटिंग से भारत दूर रहा.

इस प्रस्ताव में एक साल के अंदर ग़ज़ा और वेस्ट बैंक में इसराइली कब्ज़े को ख़त्म करने की बात कही गई थी. ये प्रस्ताव इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस यानी आईसीजे की एडवाइज़री के बाद लाया गया था. 193 सदस्यों की संयुक्त राष्ट्र महासभा में 124 सदस्य देशों ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया.

14 देशों ने इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ वोटिंग की और भारत समेत 43 देश इस वोटिंग से बाहर रहे.

सात अक्तूबर 2023 को हमास ने इसराइल पर बड़े पैमाने पर एक सुनियोजित हमला किया था. हमले में क़रीब 1200 लोग मारे गए थे. इसके बाद इसराइल ने ग़ज़ा में सैन्य कार्रवाई शुरू की थी. इसराइली कार्रवाई में अब तक ग़ज़ा और वेस्ट बैंक में 40 हज़ार से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं.

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ब्रिक्स गुट में ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और साउथ अफ़्रीका शामिल हैं. ब्रिक्स गुट में भारत एकमात्र देश है, जो वोटिंग से बाहर रहा.

अंतरराष्ट्रीय मामलों पर गहरी नज़र रखने वाली वरिष्ठ पत्रकार सुहासिनी हैदर ने लिखा- दक्षिण एशिया में नेपाल के अलावा सिर्फ़ भारत रहा जो इस वोटिंग में शामिल नहीं हुआ.

संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि पर्वतनेनी हरीश ने कहा, ''दुनिया इस संघर्ष को 11 महीने से देख रही है. इस कारण बच्चों और महिलाओं समेत हज़ारों लोगों की मौत हुई. इस मामले में हमारा रुख़ साफ है. हम इसराइल पर सात अक्तूबर को हुए आतंकी हमले की निंदा करते हैं. इस संघर्ष में नागरिकों के मारे जाने की हम निंदा करते हैं. हम तत्काल सीज़फायर और बंधकों को छोड़े जाने की मांग करते हैं.''

भारत ने कहा, ''हम ग़ज़ा पट्टी में मानवीय मदद पहुंचाने के पक्ष में हैं. इसराइल-फ़लस्तीन संघर्ष में भारत के शांति का रास्ता अपनाने के बारे में सब जानते हैं. हम दो राष्ट्र सिद्धांत की बात करते हैं, इसी के ज़रिए शांति को लाया जा सकता है.''

भारत के वोटिंग से दूरी बनाए रखने के बारे में पर्वतनेनी हरीश बोले, ''आज हुई वोटिंग में भारत अनुपस्थित रहा. हम बातचीत और कूटनीति की वकालत करते रहे हैं. हन मानते हैं कि इस संघर्ष को ख़त्म करने का और कोई रास्ता नहीं है. इस संघर्ष में कोई विजेता नहीं है.''

उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में अपनी स्पीच में कहा, ''हमारी साझा कोशिश ये होनी चाहिए कि दोनों पक्ष पास आएं. हमें जोड़ने का काम करना चाहिए न कि बाँटने का.''

भारत की ओर से अपील की गई कि शांति लाने के लिए असल प्रयास किए जाने की ज़रूरत है.

हालांकि अभी भले ही भारत इस वोटिंग से दूर रहा हो मगर अतीत में वो इसराइल के ख़िलाफ़ वोटिंग में शामिल रहा है.

नवंबर 2023 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में उस प्रस्ताव के समर्थन में वोट किया, जिसमें कब्ज़े वाले फ़लस्तीनी क्षेत्र में इसराइली बस्तियों की निंदा की गई थी.

हमास-इसराइल युद्ध शुरू होने से पहले अप्रैल 2023 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद एक प्रस्ताव लाया गया था. इस प्रस्ताव में 1967 के बाद से क़ब्ज़े वाले इलाक़ों को छोड़ने, नई बस्तियों को बसाने से रोकने के लिए कहा गया था. भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया था.

भारत ने तब फ़लस्तीनी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार का भी समर्थन किया गया था.

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    संयुक्त राष्ट्र में इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ वोटिंग करने वालों में अमेरिका, फिजी, हंगरी, अर्जेंटीना जैसे 14 देश शामिल रहे. इस प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग करने वालों में पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, मलेशिया और रूस जैसे 124 देश शामिल रहे.

    संयुक्त राष्ट्र महासभा में हुई वोटिंग को संयुक्त राष्ट्र में फ़लस्तीनी राजदूत रियाद मंसूर ने ''आज़ादी और इंसाफ़ की लड़ाई'' में अहम मोड़ बताया.

    इसराइल के राजदूत डैनी डेनन ने इस वोटिंग को शर्मनाक फ़ैसला बताया.

    डेनन ने कहा, ''हमास के हमले की बरसी मनाने की बजाय संयुक्त राष्ट्र महासभा फ़लस्तीनी अथॉरिटी की धुन पर नाचना जारी रखे हुए है.''

    हालांकि संयुक्त राष्ट्र के इस प्रस्ताव को मानना अनिवार्य नहीं है. मगर ऐसे प्रस्तावों से किसी मुद्दे पर दुनिया के रुख़ की झलक मिलती है.

    यूक्रेन-रूस युद्ध शुरू करने के बाद से संयुक्त राष्ट्र में रूस के ख़िलाफ़ कई प्रस्ताव आए. इनमें से ज़्यादातर प्रस्तावों से भारत ने दूरी बनाए रखी या ऐसा रुख़ नहीं अपनाया जो रूस को रास ना आए.

    आईसीजे ने इसराइल को लेकर जो फ़ैसला सुनाया था, उसे मानना बाध्यकारी या अनिवार्य नहीं है.

    अमेरिका ने क्या कहा Getty Images इसराइल के अस्तित्व के एलान के महज 11 मिनटों के भीतर उसे अमेरिकी मान्यता मिल गई थी

    अमेरिका इसराइल का परंपरागत सहयोगी रहा है. 1948 में इसराइल के अस्तित्व में आने के साथ ही अमेरिका उसे मान्यता देने वाला पहला देश बना था.

    इसराइल के अस्तित्व के एलान के महज 11 मिनटों के भीतर उसे अमेरिकी मान्यता मिल गई थी. मगर बीते कुछ महीनों में ग़ज़ा में युद्ध के कारण अमेरिका और इसराइल के बीच भी दूरियां दिखी थीं.

    हालांकि इससे अमेरिका और इसराइल के संबंधों पर कोई असर देखने को नहीं मिला.

    संयुक्त राष्ट्र महासभा में अमेरिका की राजदूत लिंडा थॉमस ने कहा कि जो प्रस्ताव लाया गया था, उसमें कई कमियां थीं.

    लिंडा थॉमस बोलीं, ''हमारी नज़र में इस प्रस्ताव से फ़लस्तीनी नागरिकों को कोई फ़ायदा नहीं पहुंचेगा.''

    संयुक्त राष्ट्र महासभा में ये प्रस्ताव ऐसे वक़्त में पास किया गया है, जब 17 और 18 सितंबर को लेबनान में पेजर, वॉकी-टॉकी में विस्फोट हुए हैं.

    हिज़्बुल्लाह और कई जानकारों का कहना है कि इन हमलों के पीछे इसराइल का हाथ है.

    हालांकि इसराइल की ओर से अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है.

    इसराइल फ़लस्तीन मुद्दे पर भारत का रुख़ Getty Images साल 1980 में यासिर अराफ़ात के साथ इंदिरा गांधी

    भारत के विदेश मंत्रालय के मुताबिक़, फ़लस्तीनी मुद्दे पर भारत का समर्थन देश की विदेश नीति का एक अभिन्न अंग है.

    साल 1974 में भारत, यासिर अराफ़ात की अगुआई वाले फ़लस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) को फ़लस्तीनी लोगों के एकमात्र और वैध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने वाला पहला ग़ैर-अरब देश बना था.

    साल 1988 में भारत फ़लस्तीनी राष्ट्र को मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक बन गया था.

    साल 1996 में भारत ने ग़ज़ा में अपना प्रतिनिधि कार्यालय खोला, जिसे बाद में 2003 में रामल्ला में स्थानांतरित कर दिया गया था.

    भारत ने अक्तूबर 2003 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव का भी समर्थन किया, जिसमें इसराइल के विभाजन की दीवार बनाने के फ़ैसले का विरोध किया गया था. 2011 में भारत ने फ़लस्तीन को यूनेस्को का पूर्ण सदस्य बनाने के पक्ष में मतदान किया.

    सितंबर 2015 में भारत ने फ़लस्तीनी ध्वज को संयुक्त राष्ट्र के परिसर में स्थापित करने का भी समर्थन किया.

    भारत इसराइल फ़लस्तीन के मामले में दो राष्ट्र सिद्धांत का पक्षधर रहा है.

    भारत ने इसराइल को 1950 में मान्यता दी थी.

    भारत भी 1952 में इसराइल में अपना वाणिज्य दूतावास खोलना चाहता था, लेकिन फ़ैसले को एक-दो साल के लिए आगे बढ़ा दिया गया. बाद में स्वेज़ नहर विवाद के कारण ऐसा नहीं हो पाया.

    दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध पूरी तरह से 1992 में शुरू हुए थे.

    बीते कई सालों में पीएम मोदी और इसराइल के मौजूदा प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के बीच क़रीबियां दिखीं. इसराइल में क़रीब 14 हज़ार से ज़्यादा भारतीय नागरिक रहते हैं.

    बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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