ज़िंदगी भर शागिर्द रहना चाहते थे उस्ताद ज़ाकिर हुसैन, बीबीसी से 'एक मुलाक़ात' में और क्या बताया था?

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भारत के जानेमाने तबला वादक और ग्रैमी अवॉर्ड विजेता उस्ताद ज़ाकिर हुसैन का निधन हो गया है. वे 73 साल के थे और अमेरिका में रह रहे थे.

1951 में जन्मे ज़ाकिर हुसैन की गिनती महान तबला वादकों में की जाती है. उन्हें 1988 में पद्म श्री, 2002 में पद्म भूषण और 2023 में पद्म विभूषण से नवाज़ा गया था.

द बीटल्स सहित कई पश्चिमी संगीतकारों के साथ प्रस्तुति के लिए भी उनकी ख्याति रही है.

हुसैन को अपने करियर में चार ग्रैमी पुरस्कार मिले हैं, जिनमें इस साल की शुरुआत में 66वें ग्रैमी समारोह में मिले तीन पुरस्कार भी शामिल हैं.

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BBC Getty Images 66वें ग्रैमी अवॉर्ड्स के दौरान चार फ़रवरी 2024 को ज़ाकिर हुसैन को 'पश्तो' के लिए 'ग्लोबल म्युज़िक परफ़ॉर्मेंस' अवार्ड मिला था.

साल 2009 में बीबीसी हिंदी सेवा के विशेष कार्यक्रम 'एक मुलाक़ात' में उन्होंने संगीत की दुनिया की अपनी यात्रा के बारे में कई बातें साझा की थीं. यह साक्षात्कार बीबीसी हिंदी के तत्कालीन संपादक संजीव श्रीवास्तव ने लिया था.

जब इतने सारे अवॉर्ड मिलते हैं तो क्या ये रूटीन सा बन जाता है?

मेरा मानना है कि अवॉर्ड को काम के हिसाब से लिया जाना चाहिए. अवॉर्ड मिलना इस बात की पुष्टि है कि आप सही रास्ते पर चल रहे हैं. अवॉर्ड को एक आशीर्वाद की तरह माना जा सकता है. ग्रैमी अवॉर्ड की ज्यूरी में सभी कलाकार लोग हैं. मेरे हिसाब से अगर 17 साल बाद मुझे ये पुरस्कार मिला तो इसका मतलब है कि हम नए ज़माने के साथ चल रहे हैं. वर्ना इस उम्र में तो लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिलते हैं.

परंपरा और आधुनिकता में तालमेल कैसे बनाकर चलते हैं?

कुछ पीढ़ियाँ ऐसी होती हैं, जो इस तरह पली-बढ़ी होती हैं कि सही तरीक़े से आगे बढ़ती हैं. मैं ये कहना चाहता हूँ कि कम उम्र में मुझे बड़े लोगों और गुरुजनों के साथ गाने-बजाने का मौक़ा मिला.

उससे मुझे अच्छा प्रशिक्षण मिला और जब मैं बाहर निकला तो युवा होने के साथ-साथ मेरा दिमाग़ ज़्यादा खुला था.

मुंबई में पलने-बढ़ने के कारण मुझे हर तरह का संगीत सुनने को मिला. मेरे पिता भी दुनिया भर में घूमते थे और तरह-तरह के टेप मुझे सुनने के लिए देते थे.

तो कुल मिलाकर कम उम्र में इतना एक्सपोज़र मिलने से ही मैं न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर के लोगों के साथ काम करने के काबिल बन सका.

आज के कलाकार जब 17-18 साल के होते हैं तो वे वर्ल्ड कलाकार होते हैं. उन्हें पश्चिमी संगीत और भारतीय संगीत की जानकारी होती है.

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आप जब 17-18 साल के थे तो तब भी काफ़ी लोकप्रिय थे?

लेकिन मुझे अच्छा एक्सपोजर मिला. मैं इसका श्रेय अपने पिता को दूँगा. उनकी वजह से मैंने कई लोगों को सुना और उनसे मिला.

12 साल की उम्र में मैं बड़े ग़ुलाम अली, आमिर खाँ, ओंकारनाथ ठाकुर के साथ तबला बजा रहा था.

16-17 साल की उम्र में मैं रविशंकर, अली अकबर खाँ के साथ संगत कर रहा था.

इसके बाद मैंने अगली पीढ़ी हरि प्रसाद, शिव कुमार, अमज़द भाई के साथ और फिर आज की पीढ़ी शाहिद परवेज़, राहुल शर्मा, अमान-अयान के साथ बजाया.

तो मैं ये कह रहा हूँ कि चार पीढ़ियों के साथ बजाने का मुझे अच्छा अनुभव मिला. फिर मुझे बॉलीवुड और हॉलीवुड के साथ फ़िल्मों में काम करने का मौक़ा मिला.

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इतनी छोटी उम्र में इतने बड़े लोगों के साथ काम करने का अनुभव?

दरअसल, मुझे पता ही नहीं चलता था कि मैं किन लोगों के साथ काम कर रहा हूँ. मेरा पहला पेशेवर कार्यक्रम 12 साल की उम्र में हुआ और मैं अकबर अली खाँ की शागिर्दी कर रहा था. 10 साल के बाद जब मैं उनके साथ बजा रहा था तब मुझे अहसास हुआ कि उस उम्र में मैं किसके साथ बजा रहा था.

तो मैं इसे अकबर अली खाँ साहब का बड़प्पन कहूँगा कि उन्होंने मुझे अहसास तक नहीं होने दिया कि मैं उनके जैसे बड़े कलाकार के साथ बजा रहा हूँ.

आपके पिता उस्ताद अल्ला रक्खा साहब अपने आप में संगीत का स्कूल थे. तो क्या वही आपके प्रेरणा स्रोत थे?

मुझ पर सबसे ज़्यादा असर मेरे पिता का ही था. मेरे पिता ने ही मुझे शुरुआती तालीम दी. कैसे कहाँ हाथ रखना है, बोल के साथ कैसे संतुलन बिठाना है, किस घराने की क्या ख़ासियत है.

उसके बाद जब मैं अलग-अलग जगहों पर बजाने लगा और दूसरे तबला वादकों को भी सुना तो उनसे भी कुछ प्रेरित हुआ.

मेरे पिता ने भी मुझे अच्छी चीज़ों को लेने से नहीं रोका. तो मेरे पिता की तालीम नींव थी, लेकिन बाक़ी लोगों में उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ, ख़लीफ़ा वाज़िद हुसैन, कंठा महाराजजी, शांता प्रसाद जी का असर भी मुझ पर पड़ा.

कभी ऐसा भी लगा कि तबला नहीं बल्कि कुछ और बजाना चाहिए?

नहीं कुछ और चुनने का तो सवाल ही नहीं था. बचपन में कई बार ऐसा हुआ है कि रियाज़ करने के बाद जब मैं सोता था तो तबला भी साथ होता था. दिमाग़ में कभी आया ही नहीं कि कुछ और बजाया जाए. वैसे मेरे पिता ने थोड़े दिनों के लिए पियानो सीखने के लिए भेजा था.

शायद उन्हें ख़बर थी कि इससे मुझे पश्चिमी संगीत का कुछ अंदाज़ा हो जाएगा. तो मैंने थोड़ा पियानो और गिटार बजाया. सितार पर भी थोड़ा हाथ चलाया.

कैलीफ़ोर्निया में मैं अली अकबर खाँ साहब के स्कूल में सिखाता था. जब वो सरोद की क्लास लेते थे तो मैं भी पीछे बैठकर कुछ टन-टन-टन किया करता था. लेकिन जो रुझान मेरा तबले की तरफ रहा वो किसी और साज़ की तरफ नहीं गया.

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तबला बजाने के साथ आपने जो इसे सेक्स अपील दी, उसके बारे में आप क्या कहेंगे?

देखिए, जब हम मंच पर चढ़ते हैं तो ये नहीं सोचते कि हमें अपने बाल ऐसे बनाने हैं, इस तरह के कपड़े पहनने हैं. मैं 1960-70 के दशक की बात कर रहा हूँ.

तब मीडिया का भी इतना असर नहीं था. 20-25 साल की मेहनत के बाद कुछ स्टेटस मिला. उससे पहले तो ट्रेन में तीसरे दर्जे में सफर करते थे. मुंबई से पटना, बनारस, कोलकाता जाने में तीन-तीन दिन लग जाते थे. कभी-कभी सीट भी नहीं होती थी. अख़बार बिछाकर नीचे बैठते थे. पिता का हुक्म था कि तबला सरस्वती है और इसे किसी का पैर नहीं लगना चाहिए.

करीब 20-22 साल तक ये चलता रहा. 1961-62 से मैं तबला बजा रहा हूँ और सत्तर के दशक के आख़िर में मुझे पहचान मिली. रही बात सेक्स अपील की तो मैं कहना चाहूँगा कि जब मैं अमरीका गया और वहाँ अली अकबर खाँ के साथ तमाम टूर किए. इसके बाद कुछ आत्मविश्वास आया.

हिंदुस्तान से बाहर रहकर मैंने एक और बात सीखी कि मंच पर बैठकर मेरा मक़सद श्रोताओं से ताली बजवाना नहीं होना चाहिए, बल्कि तबला बजाने का आनंद लेना चाहिए. लोगों को मेरा आनंद लेना दिखता भी है.

लोगों को देखकर मैं हँस रहा हूँ, जो बात मुझे अच्छी लग रही है उसे सराह रहा हूँ. शायद यही बात मुझे दूसरे कलाकारों से अलग करती है. मेरा ये मानना है कि अगर आप ख़ुद को किसी चीज के प्रति समर्पित कर देते हैं और ये दूसरों को दिखता भी है तो ये आपको दूसरों से अलग करता है.

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आपका हेयर स्टाइल कब से ऐसा है?

हेयर स्टाइल कभी सोचकर नहीं बनाया. शायद कभी ऐसा हुआ कि नहा धोकर बाहर निकले. जाने की जल्दी थी तो बालों को सुखाने और कंघी करने का मौका नहीं मिला. उस दौरान अमरीका में हिप्पी स्टाइल चल रहा था. लंबे बाल, लंबी दाढ़ी.

तो मैंने भी कभी ध्यान नहीं दिया. फिर ताज चाय वालों के साथ मेरा क़रार भी हुआ और उन्होंने क़रार में ये शर्त भी रखी कि आप बाल नहीं कटवा सकते. तो मेरी मज़बूरी भी बन गई.

एक ज़माना ऐसा था कि मेरे बहुत घने बाल थे. लेकिन अब उम्र बढ़ रही है और बाल गिर रहे हैं.

अच्छा ये बताएँ. लड़कियाँ आपको इतना चाहती हैं, इससे आपका ध्यान कितना भंग होता है?

ये तो आप पर है. मेरा फ़ोकस बचपन से ही संगीत पर रहा है. मेरी कोशिश हमेशा से ही ये रही है कि मंच पर बजाते हुए कभी बाधा न पड़े. मुझे हर वक़्त कार्यक्रम की फिक्र रहती है.

मेरे कुछ नियम हैं. मसलन मैं आज भी जब कार्यक्रम के लिए जाता हूँ तो अपने कपड़े खुद इस्त्री करता हूँ. तबले को सही तरीके से देखता हूँ.

ये बहुत रोचक है. और क्या नियम हैं आपके?

तबले को खोलकर देखता हूँ. तबले के साथ बातचीत करता हूँ. क्या तकलीफ़ है. कहाँ सफ़ाई करनी है. साज़ के साथ इस तरह बातचीत होती है. फिर ये देखना होता है कि किसके साथ बजा रहे हैं, क्या बजाना है. तो ये सब तैयारियाँ हैं.

मैं छोटी उम्र से ही दुनिया भर में घूम रहा हूँ. फिर एक बात ये भी है कि जो चीज़ आपके पास नहीं होती है आप उसके प्रति ज़्यादा आकर्षित होते हैं. मेरा बहुत लोगों से दोस्ताना है तो फिर ध्यान हटाने वाली कोई बात भी नहीं है.

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तबले के साथ रहना, बात करना. क्या वाकई ऐसी बात है?

बिल्कुल होती है. मेरा मानना है कि हर साज़ में एक प्रेरणा होती है. बचपन की एक बात बताऊँ. मैं मुंबई में पंडित किशन महाराज का कार्यक्रम सुनने गया. वो बिरजू महाराज के साथ बजा रहे थे. जब किशन महाराज मंच पर जा रहे थे तो मैंने उन्हें गुड लक कहा तो उनका जवाब था 'देखते हैं बेटा आज साज़ क्या कहना चाहता है.'

उस समय तो मुझे इस बात का मतलब पता नहीं चला, लेकिन बाद में अहसास हुआ.

मतलब ये कि साज़ की भी ज़बान है, आत्मा है. वो अगर नहीं बोलेगी तो मैं चाहे जो भी कर लूँ, कुछ नहीं होने वाला.

हम तो मानते हैं कि संगीत सरस्वती का वरदान है. शिवजी का डमरू या गणेशजी का पखावज या फिर कृष्णा की बांसुरी. हिंदुस्तान पर इन सबका आशीर्वाद है तो स्वाभाविक है कि इसमें आत्मा तो होगी ही.

ज़ाकिर हुसैन साहब, संगीत की भाषा इतनी धर्मनिरपेक्ष क्यों है, दूसरी चीजों में ऐसा क्यों नहीं है?

क्योंकि संगीत सबसे पवित्र है. नाद ब्रह्म यानी ध्वनि ईश्वर है. उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली साहब का एक इंटरव्यू है जिसमें उनसे पूछा गया कि आपने ये हरिओम ततसद.. कैसे गाया. उन्होंने कहा क्यों नहीं, ये ख़ुदा का नाम है और हम इसे सराह रहे हैं. तो संगीत में ये आनाकानी बिल्कुल नहीं है.

इसमें तो शुरू से ही ऐसा नहीं है. ख़याल की पैदाइश ध्रुपद, प्रबंध गायकी, हवेली संगीत, सूफियाना कलाम को मिलाकर हुई है. तभी तो आप देखते हैं कि पंडित जसराज गा रहे हैं मेरो अल्लाह मेहरबान और बड़े ग़ुलाम अली साहब हरिओम ततसद गा रहे हैं. तो संगीत में किसी तरह की सीमा या बंधन नहीं है. दुनिया के राजनेता ये समझ लें तो सब कुछ ठीक हो जाएगा.

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आपके पार्ट टाइम शौक क्या हैं?

मुझे और मेरी बीवी को हाइकिंग पसंद है. पढ़ना भी मुझे अच्छा लगता है. इसके अलावा अलग-अलग प्रांत और अलग-अलग देशों का लोक संगीत भी मुझे बहुत पसंद है.

लोक संगीत इसलिए क्योंकि इससे आपको उस जगह के लोगों के रहन-सहन और जीवनशैली के बारे में पता चलता है.

फ़िल्में देखने का शौक रखते हैं?

फ़िल्में या थिएटर देखे हुए मुझे लगभग 20 साल हो गए हैं. दरअसल, प्रोग्राम के सिलसिले में थिएटर में इतना जाना होता है कि उसके बाद थिएटर में घुसने की इच्छा नहीं होती.

वैसे आजकल टेलीविज़न पर सब कुछ उपलब्ध है. होटल में घुसने के बाद मैं न्यूज़ चैनल लगाता हूँ. खेल देखने का शौक है. बास्केटबॉल, टेनिस, क्रिकेट देखने का शौक है.

आपके पसंदीदा क्रिकेट खिलाड़ी?

मैं भी स्कूल के दिनों में विकेटकीपर था. मेरे पसंदीदा क्रिकेटर फ़ारुख़ इंजीनियर थे. उनके अलावा मुझे जीआर विश्वनाथ, दिलीप वेंगसरकर, अज़हर, राहुल द्रविड़ को खेलते देखना अच्छा लगता है. सचिन तेंदुलकर के स्ट्रोक प्ले मुझे अच्छे लगते हैं.

आजकल तो मारपिटाई वाला क्रिकेट शुरू हो गया है. टी-20 के बाद अब तो लगता है टी-10 भी आ जाएगा. लेकिन मुझे टेस्ट क्रिकेट सबसे अधिक पसंद है.

आपके इतने अधिक चाहने वाले हैं, क्या आपका भी कोई फ़ेवरिट है?

बिल्कुल. मैं ये कहना चाहूँगा कि पिता मेरे लिए ख़ुदा की तरह थे. हर चीज की तुलना उनसे करता था. पंडित रविशंकर से मैंने काफ़ी कुछ सीखा है. मंच पर प्रदर्शन कैसे करना है, इसकी सीख तो रविशंकर जी ने ही हिंदुस्तानी कलाकारों को दी है.

आज़ादी से पहले तो संगीत राजमहलों तक ही सीमित था. मंच पर इसे कैसे पेश करना है, कलाकारों को पता ही नहीं था. इनके अलावा अली अकबर खाँ साहब से मुझे साज बजाने, इसकी देखरेख करने की प्रेरणा मिली.

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आपके पसंदीदा अभिनेता?

दिलीप कुमार और अशोक कुमार मुझे काफ़ी पसंद थे. अशोक कुमार का अभिनय स्वाभाविक लगता था. अच्छा लगता था कि कितनी आसानी से वो अभिनय कर लेते थे. मीना कुमारी, मधुबाला भी मुझे बहुत पसंद थीं.

आज की पीढ़ी में मुझे गोविंदा बहुत पसंद हैं. कारण पता नहीं क्या हैं. अमिताभ बच्चन भी पसंद हैं.

राजेश खन्ना का अभिनय मैंने मिस किया क्योंकि उस दौरान मैं अमरीका में था. आज के कलाकारों में आमिर ख़ान अच्छे लगते हैं, मैंने उनकी हाल की फ़िल्म तारे ज़मीं पर देखी है.

और अभिनेत्रियों में?

मैं अब भी रेखा का बड़ा प्रशंसक हूँ. आज की अभिनेत्रियों में मुझे अब भी रेखा जैसी कलाकार का इंतज़ार है. आजकल फैशन परेड, डिस्कोथेक का ज़ोर है.

मैं आपको 8-10 साल पहले का वाकया बताता हूँ. मैं चेन्नई में था. एक प्रोड्यूसर-डायरेक्टर मेरे प्रोग्राम में आए थे. उन्होंने मुझसे कहा, सर आपको मेरी फ़िल्म में अभिनय करना चाहिए. मैंने कहा कि मुझे तो तमिल नहीं आती. तो उन्होंने कहा कि ये कोई समस्या नहीं है, लेकिन आपको डांस करना तो आता है न.

आपको फ़िल्मों में काम करने का मन करता है?

मैंने कुछ फ़िल्मों और अमरीकी टेलीविज़न धारावाहिकों में काम किया है. मैंने ख़ुद को कई मौके दिए और इस नतीजे पर पहुँचा कि मैं अभिनेता की बजाय अच्छा तबला वादक हूँ.

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क्या कोई ऐसी ख़्वाहिश जो आप करना चाहते हैं?

मैं भारत में पैदा हुआ और मुंबई में पला-बढ़ा. स्वाभाविक था कि बॉलीवुड के प्रति मेरा आकर्षण था. मेरी हमेशा से ही इच्छा थी कि मैं बॉलीवुड की फ़िल्मों के लिए संगीत दूँ. कुछ मौके मिले भी तो मेरी व्यस्तता के चलते ये परवान नहीं चढ़ सके. एक फ़िल्म साज़ थी, जिसमें मैंने संगीत दिया था, लेकिन उसमें भी मेरे सिर्फ़ चार गाने थे.

हाँ, मेरे पिता ने लगभग 40 फ़िल्मों में संगीत दिया और कई फ़िल्मों के लिए गाने भी गाए. उन्होंने पृथ्वीराज कपूर के लिए गाने गाए. एक फ़िल्म में उन्होंने सह कलाकार की भूमिका भी निभाई. कुछ उनकी ही तरह मेरा भी सफ़र रहा है. मैंने भी एक फ़िल्म में गाना गाया है. मिस्टर एंड मिसेज अय्यर में मैंने गाया है.

कोई पसंदीदा गाना?

फ़िल्मों के मामले में मेरे पसंदीदा संगीतकार मदन मोहन थे. उनके सभी गाने मुझे बहुत पसंद हैं. हक़ीक़त फ़िल्म का गाना 'खेलो न मेरे दिल से' अच्छा लगता है. संयोग फ़िल्म का गाना 'वो भूली दास्ताँ फिर याद आ गई' भी मुझे पसंद है.

आप दो वाक्यों में ख़ुद को कैसे बताना चाहेंगे?

मैं ख़ुद को शागिर्द कहना चाहूँगा. मैं हर रोज़ नया सीखने की कोशिश करता हूँ.

मेरे पिता मुझे हमेशा कहा करते थे बेटा उस्ताद बनने की कोशिश कभी मत करना, अच्छे शागिर्द बनो तो बहुत कुछ सीखोगे.

ये मैं विनम्र होकर नहीं कह रहा हूँ. हर रोज़ जब मैं घर से निकलता हूँ तो मुझे ये पता रहता है कि आज कुछ नया सीखूँगा. तो मेरे हिसाब से जीवन मंजिल पर पहुँचने का नहीं, बल्कि जीवन के सफ़र का आनंद उठाने का नाम है.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.

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