राज कपूर@100: महज़ 26 साल की उम्र में दुनिया भर में जिनका नाम गूंजने लगा था

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14 दिसंबर, 1924 को मौजूदा पाकिस्तान के पेशावर में जन्मे राज कपूर की गिनती उन फ़िल्मकारों में होती है, जिन्होंने भारतीय सिनेमा को दुनिया भर में लोकप्रिय बनाया.

यक़ीन करना भले मुश्किल हो, लेकिन सच्चाई यही है कि तेज़ रफ़्तार इंटरनेट और आधुनिकतम तकनीक की आज की दुनिया से कोई 70 साल पहले राज कपूर ने भारतीय सिनेमा को दुनिया के कोने-कोने में पहुँचा दिया था.

राज कपूर की फ़िल्म 'आवारा' रूस की सबसे मशहूर फ़िल्मों में शुमार की जाती है, लेकिन राज कपूर की समाजवादी संदेश वाली फ़िल्मों का जादू चीन, ईरान, तुर्की, अमेरिका, पूर्वी यूरोप के कई देशों में आज भी महसूस किया जा सकता है.

बतौर फ़िल्मकार राज कपूर का करियर क़रीब 40 सालों का रहा. लेकिन उन्होंने कामयाबी, शोहरत और लीजेंड जैसी छवि महज़ तीन सालों के अंदर हासिल कर ली थी.

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BBC BBC राज कपूर की चुनिंदा फ़िल्में 13 से 15 दिसंबर के बीच 40 शहरों के 135 सिनेमाघरों में प्रदर्शित की जा रही हैं.

1947 में केदार शर्मा की फ़िल्म 'नीलकमल' में हीरो बनने वाले राज कपूर 1948 में 'आग' फ़िल्म के साथ आरके फ़िल्म्स की स्थापना करते हैं. इस फ़िल्म का विचार उनके मन में कहीं बाहर से नहीं आया था.

राज कपूर के दादा अपने बेटे पृथ्वीराज कपूर को सामाजिक रुतबे के लिहाज़ से दबदबे वाले पेशे वकालत में भेजना चाहते थे. लेकिन परिवार वालों से लगभग विद्रोह करके पृथ्वी राज कपूर ने थिएटर और फ़िल्मों का रास्ता चुना.

राज कपूर ने अपने पिता के इसी अनुभव को अपनी पहली ही फ़िल्म 'आग' में पर्दे पर उतार दिया था.

कठिन परवरिश

पृथ्वीराज कपूर पेशावर से कोलकाता आए और फिर तब की बंबई पहुँचे और भारतीय सिनेमा के कद्दावर कलाकार के तौर पर स्थापित होते गए.

राज कपूर उनके सबसे बड़े बेटे थे. लिहाज़ा वे बचपन से ही फ़िल्मों के प्रभाव में आ गए. उन्होंने पिता की फ़िल्मों में बाल कलाकार की भूमिका भी निभाई और देखते-देखते पढ़ाई से उनका मन उचट गया.

मैट्रिक में फ़ेल होने के बाद उन्होंने अपने पिता से बात करते हुए अपने इरादे ज़ाहिर कर दिए कि वे फ़िल्म निर्माण की दुनिया की बारीकियाँ सीखना चाहते हैं.

पृथ्वीराज कपूर ने अपने बेटे को शुरुआती सालों में ही गढ़ दिया. राज कपूर ने कई मौक़ों पर इसका ज़िक्र किया है कि उनके पिता के नाम का फ़ायदा उन्हें शुरुआती सालों में बहुत ज़्यादा नहीं मिला.

बीबीसी के चैनल फ़ोर के लिए सिमी गरेवाल ने राज कपूर पर 1986 में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी- 'लिविंग लीजेंड राज कपूर.'

इस डॉक्यूमेंट्री में राज कपूर ने कहा था, "पापा जी ने कह दिया कि फ़िल्म बनाने की बारीकियाँ सीखो. चौथे-पाँचवें असिस्टेंट के तौर पर. सेट पर पोछा लगाने से लेकर फ़र्नीचर इधर से उधर करने का काम किया. मैं उस वक़्त के सेलिब्रेटी एक्टर का बेटा ज़रूर था, लेकिन मैं नोबडी था. बस दो जोड़ी पैंट-बुशर्ट, रेन कोट और छाता के अलावा एक गम बूट मिलता था. साथ में दस रुपये महीने का जेब ख़र्च भी देते थे."

हालांकि ये सख़्ती स्कूल के ज़माने से ही थी. राज कपूर की बेटी ऋतु नंदा ने 'राज कपूर स्पीक्स' नाम की किताब में लिखा है, "राज कपूर दूसरे बच्चों की तरह ट्राम से स्कूल जाते थे. एक दिन बहुत तेज़ बारिश हो रही थी. राज ने अपनी माँ से पूछा कि क्या वो आज कार से स्कूल जा सकते हैं? उन्होंने कहा मैं तुम्हारे पिता से पूछकर बताती हूँ. पृथ्वीराज कपूर ने जब ये सुना तो उन्होंने कहा इस बारिश में पानी के थपेड़े झेलते हुए स्कूल जाने में भी एक 'थ्रिल' है. उसको इसका भी तजुर्बा लेने दो."

राज कपूर दरवाज़े के पीछे ये बातचीत सुन रहे थे. उन्होंने अपने पिता से ख़ुद कहा, "सर, मैं ट्राम से ही स्कूल जाऊँगा."

ऋतु नंदा ने इसके बाद का ब्योरा भी लिखा है, "पृथ्वीराज कपूर ने जब बालकनी से राज को भीगते हुए स्कूल जाते देखा, तो उन्होंने अपनी पत्नी रामसमी से कहा, एक दिन इस लड़के के पास उसके पिता से कहीं ज़्यादा फ़ैंसी कार होगी."

पिता के साये से बाहर निकलना Harper Collins कपूर ख़ानदान की तीन पीढ़ियों ने आवारा फ़िल्म में काम किया था. राज कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर और दादा बिशेश्वर नाथ कपूर (बीच में) के साथ.

कपूर ख़ानदान पर बहुचर्चित किताब 'द कपूर्स-द फ़र्स्ट फैमिली ऑफ़ इंडियन सिनेमा' लिखने वाली मधु जैन भी इसी तरह का एक और क़िस्सा बताती हैं.

उन्होंने लिखा है, "एक बार जब पृथ्वीराज कपूर अपने घर से बाहर निकले, तो उन्होंने देखा कि राज कपूर खड़े हुए हैं. उन्होंने पूछा कि तुम अब तक स्टूडियो क्यों नहीं गए? इसके बाद वो अपनी कार में बैठे और तेज़ी से आगे निकल गए. दोनों को एक ही जगह जाना था, लेकिन उनके पिता ने उन्हें अपनी कार में नहीं बैठाया और राज कपूर को वहाँ जाने के लिए बस लेनी पड़ी."

क्या ही दिलचस्प संयोग है कि अपनी पहली कामयाब फ़िल्म 'बरसात' के हिट होने के बाद राज कपूर ने ना केवल अपने लिए नई कंर्वेटिबल कार ख़रीदी बल्कि अपने पिता को भी एक ब्लैंक चेक दिया कि वे कार ख़रीदें. लेकिन पिता ने उस चेक को कभी नहीं भुनाया.

पिता के क़द को देखते हुए राज कपूर ने शुरुआती दिनों में ये तय कर लिया था कि उन्हें अपने पिता से कुछ अलग करना होगा, तभी उनकी अपनी पहचान बन पाएगी. उन्होंने अपने पिता की दबंग छवि और भूमिकाओं से अलग हटकर आम लोगों की भूमिकाओं को निभाने पर ज़ोर दिया.

एक संपन्न घर के युवा और आकर्षक लुक के बावजूद वे आम मेहनतकश लोगों में ख़ुद को देखने लगे. अपने पिता की लाउड संवाद अदायगी के सामने वे अटक अटक कर गंवई अंदाज़ में बोलने वाले नायक बने.

इतनी भिन्नता के साथ अपनी पहली ही फ़िल्म 'आग' से उन्होंने सिनेमाई दुनिया में मज़बूत उपस्थिति दर्ज की. अपने पिता से अलग दिखने की चाहत में उन्होंने अभिनय के साथ निर्देशन को भी चुना. बरसात उनकी दूसरी फ़िल्म थी, और नरगिस के साथ उनकी जोड़ी सुपरहिट साबित हुई.

बहरहाल राज कपूर के जीवन का सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट जल्दी ही आ गया. हालाँकि ये मौक़ा उनसे पहले महबूब ख़ान के पास गया था. ख़्वाजा अहमद अब्बास ने जब 'आवारा' की कहानी लिखी, तो उन्होंने सबसे पहले महबूब ख़ान को ये कहानी सुनाई.

अब्बास इस फ़िल्म के लिए पृथ्वीराज कपूर और राज कपूर को लेने की वकालत कर रहे थे और महबूब ख़ान पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार के साथ इस फ़िल्म को करना चाहते थे.

इससे ठीक पहले 1949 में महबूब ख़ान ने राज कपूर, नरगिस और दिलीप कुमार को लेकर 'अंदाज़' फ़िल्म बनाई थी और ये फ़िल्म सुपरहिट साबित हुई थी.

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जयप्रकाश चौकसे ने राज कपूर की सृजन प्रक्रिया में लिखा है कि महबूब ख़ान और अब्बास के बीच इस बात को लेकर बहस हो गई थी कि पृथ्वीराज कपूर के बेटे का रोल कौन बेहतर निभा सकता है.

अब्बास का तर्क ये था कि असली जीवन में भी बाप-बेटे होने के चलते अगर बेटे का रोल राज कपूर निभाएँ, तो फ़िल्म को अतिरिक्त फ़ायदा होगा. इस बहस के दौरान नरगिस भी वहीं मौजूद थीं.

चौकसे ने लिखा है कि महबूब ख़ान ने ही नरगिस को सिने पर्दे पर ब्रेक दिया था, लेकिन 'बरसात' की वजह से वह राज कपूर के नज़दीक भी थीं. उन्होंने इस बहस की बात राज कपूर को बताई होगी.

क्योंकि राज कपूर ने इसके बाद तुरंत अब्बास से संपर्क साधते हुए इस फ़िल्म का अधिकार ख़रीद लिया. फिर उन्होंने पर्दे पर जो किया, उसकी मिसाल आज भी दी जाती है.

मार्क्सवादी अब्बास के साथ राज कपूर की जोड़ी ख़ूब जमी. अब्बास ने लिखा है, "आवारा से शुरू हुए सफ़र में राज कपूर हावी होते गए और 'बॉबी' पूरी तरह से मेरी नहीं, बल्कि उनकी फ़िल्म बन गई थी."

'आवारा' फ़िल्म को बनाते समय राज कपूर की आरके फ़िल्म्स महज़ दो फ़िल्म पुरानी थी. 'आग' और 'बरसात'. 'बरसात' की कामयाबी ने राज कपूर को इतना आश्वस्त कर दिया था कि वो 'आवारा' को बनाने में किसी तरह का कोई समझौता नहीं कर रहे थे.

Film Heritage Foundation बरसात (1949) ने आर के फ़िल्म्स को स्टूडियो के तौर पर स्थापित कर दिया

इसकी एक बानगी का ज़िक्र ख़्वाजा अहमद अब्बास ने भी किया. वे 'आवारा' के लेखक थे.

उन्होंने लिखा, "एक शाम फ़िल्म की शूटिंग के दौरान मैं राज कपूर के साथ था. तभी उनके एक असिस्टेंट ने आकर कहा कि फ़ाइनेंसर एमजी ने जो पैसे दिए थे, वो ख़त्म हो गए हैं और अब कोई पैसा नहीं बचा है. उसी रात राज कपूर ने फ़िल्म के ड्रीम सीक्वेंस को शूट करना शुरू किया था. उस सीक्वेंस को शूट करने में तीन महीने का वक़्त और तीन लाख रुपये का ख़र्च आया था."

'आवारा' की कहानी काफ़ी हद तक प्रगतिशील कहानी थी, जिसमें एक वकील (जो बाद में जज बने) ने अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया और उनका बेटा गुंडे मवालियों की सोहबत में अपराधी बन जाता है.

फिर अदालत में वह अपने ही पिता के सामने खड़ा हो जाता है. फ़िल्म के अंत में वह वापस लौट आता है, अपने पिता के पास.

दरअसल इस सिनेमा का नायक आज़ादी के बाद के भारत को विरासत में मिली दरिद्रता से निकला था. 'आवारा' एक तरह से कीचड़ में खिला कमल था, जिसमें लोग अपने जीवन में परिवर्तन की झलक देख रहे थे.

यह उम्मीद का सबब लेकर आई फ़िल्म थी, जिसमें राज कपूर का अभिनय अपने सर्वोत्कृष्ट दौर में दिखा और उनके अंदर का टॉप क्लास निर्देशक भी जगज़ाहिर हुआ. इस फ़िल्म के गीत संगीत का जादू आज क़रीब 73 साल बीतने के बाद क़ायम है.

सामाजिक प्रतिबद्धता का तकाज़ा Harper Collins राज कपूर ने 'आवारा' को निर्देशित भी किया था और इसमें काम भी किया था.

14 दिसंबर, 1951 को प्रदर्शित इस फ़िल्म से राज कपूर की सामाजिक प्रतिबद्धता वाली फ़िल्मों का दौर शुरू होता है, जो 'जिस देश में गंगा बहती है', तक बखूबी देखा जा सकता है.

कई सिने पत्र पत्रिकाओं का आकलन रहा है कि 'आवारा' भारत की बनी दुनिया भर में सबसे ज़्यादा देखी गई फ़िल्म रही है.

मनोरंजन की दुनिया में ये पहला मौक़ा था, जब सोवियत संघ में एक विदेशी फ़िल्म को राष्ट्रीय गौरव हासिल हुआ. वहाँ उस दौर में पैदा हुए बच्चों के नाम राज और रीता के नाम पर रखे गए.

दूसरे विश्वयुद्ध की त्रासदी से उभरते हुए रूस को 'आवारा' के नायक में अपने लोग दिखे, जो यह गा सकते थे, 'आबाद नहीं बर्बाद सही, गाता हूँ ख़ुशी के गीत मगर. ज़ख्मों से भरा सीना है मेरा, हंसती है मगर ये मस्त नज़र.'

'आवारा हूँ, आवारा हूँ, गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ' की लोकप्रियता के बारे में गीतकार शैलेंद्र की बेटी अमला शैलेंद्र ने कुछ साल पहले बीबीसी को बताया था, "हम दुबई में रह रहे थे. हमारे पड़ोस में एक तुर्कमेनिस्तान का परिवार रहता है. उनके पिता एक दिन हमारे घर आ गए, कहने लगे योर डैड रोट दिस सांग आवारा हूँ..आवारा हूँ और उसे रूसी भाषा में गाने लगे."

Keystone-France सोवियत संघ के पूर्व प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन के साथ भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू

राज कपूर के बारे में एक कहानी बार-बार सुनाई जाती है कि पचास के दशक में जब नेहरू रूस गए, तो सरकारी भोज के दौरान जब नेहरू के बाद वहाँ के प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन के बोलने की बारी आई, तो उन्होंने अपने मंत्रियों के साथ 'आवारा हूँ' गाकर उन्हें चकित कर दिया.

वैसे दिलचस्प ये भी है कि नोबल पुरस्कार से सम्मानित रूसी साहित्यकार अलेक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन की एक किताब है 'द कैंसर वार्ड.' इस पुस्तक में कैंसर वार्ड का एक दृश्य आता है, जिसमें एक नर्स एक कैंसर मरीज़ की तकलीफ़ 'आवारा हूं' गाने को गाकर कम करने की कोशिश करती है.

वैसे 1954 में राज कपूर और नरगिस एक साथ 'आवारा' फ़िल्म के प्रदर्शन के लिए सोवियत संघ गए थे.

उनके वीडियो फुटेज आज भी देखे जा सकते हैं, जहां राज कपूर को देखने के लिए सड़कों पर लोग उतर आए थे.

राज कपूर को पचास के दशक में चीन जाने का निमंत्रण भी मिला था, लेकिन वे जा नहीं सके और दशकों बाद 1996 में जब राज कपूर के बेटे रणधीर कपूर और बेटी ऋतु नंदा चीन गए, तो उनकी आँखों में उस समय आँसू आ गए, जब चीनी लोग उन्हें देखते ही 'आवारा हूँ' गाने लगते.

उन्हें ये नहीं पता था कि ये दोनों राज कपूर के बेटे-बेटी थे, लेकिन वो ये गीत गा कर राज कपूर और भारत का सम्मान कर रहे थे.

कहा तो ये भी जाता है कि 'आवारा' माओ त्से तुंग की पसंदीदा फ़िल्म थी. इस फ़िल्म को लेकर तुर्की में एक टेलीविज़न सीरियल भी बनाया गया.

दुनिया भर में चला 'आवारा' का जादू

ऋतु नंदा ने 'राज कपूर स्पीक्स' में लिखा है कि 1993 में जब रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन भारत आए और उन्हें बताया गया कि वो उनसे मिलना चाहती हैं, तो न सिर्फ़ वो इसके लिए तैयार हो गए, बल्कि उन्होंने उनकी किताब पर एक नोट लिखा, "मैं आपके पिता से प्रेम करता था. वो हमारी यादों में आज भी मौजूद हैं."

ख़्वाजा अहमद अब्बास ने भी सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव से रूस में 'आवारा' की लोकप्रियता का राज़ पूछा था तो उनका जवाब था, "दूसरे विश्व युद की विभीषिकाओं का सबसे अधिक सामना रूसी लोगों ने किया था. बहुत से रूसी फ़िल्म निर्माताओं ने इस विषय पर फ़िल्में बना कर उन्हें इस त्रासदी की याद दिलाने की कोशिश की थी. जबकि 'आवारा' के ज़रिए राज कपूर ने लोगों में उम्मीद की एक किरण जगाई थी और उनके दुखों को भूलने में मदद की थी."

इस फ़िल्म को लेकर सिनेमा और समाज के अध्येता जवरीमल्ल पारख कहते हैं, "आवारा फ़िल्म से ही राज कपूर ने ये ज़ाहिर किया कि वे मेलोड्रामा और रियलिटी को बेहतरीन अंदाज़ में मिक्स करके ऑडिएंस का बख़ूबी मनोरंजन कर सकते हैं. और यह काम उन्होंने बखूबी अपनी आख़िरी फ़िल्म तक जारी रखा."

'आवारा' एक कल्ट फ़िल्म होने के साथ साथ एक मुकम्मल फ़िल्म थी. गीत संगीत और सामाजिक संदेश से ओत प्रोत इस फ़िल्म की ताज़गी आज भी कम नहीं हुई है. लेकिन इसकी भी एक सीमा थी.

इस बारे में जवरीमल्ल पारख कहते हैं, "समय के साथ इस फ़िल्म का प्रभाव कम नहीं हुआ है. लेकिन अगर बारीकी से देखें तो राज कपूर की 'आवारा', जिन उद्देश्यों की वकालत करती है, उसके विपरीत खड़ी हो जाती है. इसमें यह दिखाया गया है कि आदमी, जिस तरह की परिस्थितियों के प्रभाव में आता है, वैसा बन जाता है. अच्छे घर का लड़का आवारागर्दी करने के बाद भी शराफ़त की दुनिया में लौटने पर स्वीकृत किया जाता है. इस फ़िल्म का नायक राजू तो सुधर जाता है, लेकिन जग्गा डाकू में भी सुधार क्यों नहीं होता है, यह फ़िल्म नहीं बता पाती है."

जवरीमल्ल पारख के मुताबिक़- "आवारा एक फ़िल्म के तौर पर यहीं चूक जाती है. जाने अनजाने वह इसकी गुंजाइश छोड़ जाती है कि अच्छे कुल का निकला शख़्स परिस्थितिवश भले कुसंगत में पड़ जाए लेकिन वह सुधर सकता है और उसका समाज उसे अपना भी सकता है. वहीं जो समाज का अभिजात्य तबका नहीं है, वह सुधर नहीं सकता है, या सुधर जाए तो अपनाया नहीं जा सकता. समाज की मुख्य धारा को नहीं बदल पाती है."

दरअसल, इसी तरह के सवाल राज कपूर की दूसरी समाजवादी रुझान वाली फ़िल्मों को लेकर भी उठते हैं. 1954 में उन्होंने 'बूट पालिश' बनाई. इसमें बंबई के निम्न मध्यवर्गीय ग़रीब परिवारों के बच्चे फुटपाथ पर अपना जीवन जीने को मजबूर हैं.

उनके सपनों की कहानी राज कपूर बताते हैं, लेकिन समाज में किस तरह के निचले पायदान पर मौजूद लोगों को वर्ग भेद झेलना पड़ता है, ये राज कपूर तो दर्शाने में कामयाब रहे लेकिन जाति भेद को लेकर उनका सिनेमा बहुत ज़्यादा नहीं कुरेदता है.

ग़रीब और कमज़ोर लोगों के किरदार RK Films and Studios फ़िल्म 'आवारा' के एक दृश्य में राज कपूर

लेकिन जवरीमल्ल पारख कहते हैं, "राज कपूर ने जिस दौर में ये फ़िल्में बनाईं, और जिन बेबाकी से ग़रीब, कमज़ोर लोगों को मुख्य किरदार में पेश किया, उसकी दूसरी मिसाल नहीं दिखती."

'आवारा' के बाद 'बूट पालिश', 'श्री420', 'जागते रहो', 'अब दिल्ली दूर नहीं', और 'जिस देश में गंगा बहती है', जैसी फ़िल्मों के ज़रिए राज कपूर ने समाज के सबसे कमज़ोर तबके और उनकी कमज़ोरी को सिनेमा के पर्दे पर उतारा.

'बूट पालिश' में भले उन्होंने काम नहीं किया हो, लेकिन उनके प्रोडक्शन की ये बेहद अहम फ़िल्म मानी जा सकती है. 'नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है', गाने से ज़ाहिर होता है कि जवाहरलाल नेहरू के समाजवाद का राज कपूर पर काफ़ी प्रभाव था.

इसी तरह से 'जागते रहो' में ग्रामीण युवक की भूमिका उन्होंने जिस अंदाज़ में निभाई, कुछ विश्लेषक उन्हें उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म मानते हैं. इस फ़िल्म के नायक को मुंबई में पीने के पानी के लिए दर-दर भटकना पड़ता है. यह राज कपूर और नरगिस की आख़िरी फ़िल्म थी.

बतौर अभिनेता 1959 में ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित फ़िल्म अनाड़ी में राज कपूर ने ऐसे ईमानदार शख़्स की भूमिका अदा की, जो ये गाता है कि, 'सबकुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी, सच है दुनिया वालों हम हैं अनाड़ी.' अपने गंवई अंदाज़ में राज कपूर ने 'तीसरी कसम' से भी लोगों को ख़ूब चौंकाया था. हालांकि ये फ़िल्म भी फ्लॉप हो गई थी और उस सदमे से शैलेंद्र उबर नहीं पाए थे.

फ़िल्म इतिहासकार रामचंद्रन श्रीनिवासन बताते हैं, "उनके शुरुआती दौर के सिनेमा को अगर देखें, तो उसमें कॉमन मैन दिखता है. वे काफ़ी हद तक चार्ली चैपलिन के प्रभाव में दिखते हैं."

इस प्रभाव की सबसे बेहतरीन फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' थी, जिसे राज कपूर की आत्मकथात्मक फ़िल्म भी कहा जाता है.

हालांकि ये फ़िल्म बुरी तरह से फ़्लॉप साबित हुई थी. इस फ़िल्म से राज कपूर को बहुत घाटा उठाना पड़ा था. फ़िल्म आलोचकों ने उन्हें एक तरह से ख़त्म मानना शुरू कर दिया था. लेकिन राज कपूर के लिए ये फ़िल्म हमेशा दिल के क़रीब रही.

सिमी गरेवाल की डॉक्यूमेंट्री में वे ख़ुद कहते हैं, "किसी एक फ़िल्म के बारे में पूछना, किसी माँ से पूछना है कि कौन बेटा अच्छा है. मेरी लिए 'मेरा नाम जोकर' ऐसी ही तस्वीर है."

जिस फ़िल्म की नाकामी ने आरके फ़िल्म्स को कर्जे़ में डाल दिया, वह फ़िल्म बाद में मील का पत्थर मानी गई.

साल 2011 के आईफ़ा फ़िल्म समारोह में राज कपूर रेट्रोस्पेक्टिव आयोजित किया गया था. इसके बारे में मीडिया से बात करते हुए रणधीर कपूर ने कहा था, "मेरे पिता के दिल के सबसे नज़दीक 'मेरा नाम जोकर' थी. उन्होंने इसे बहुत ही शिद्दत और जुनून से बनाया था. लेकिन जब फ़िल्म नहीं चली तो उनका दिल ही टूट गया."

रणधीर कपूर ने ये भी बताया कि फ़िल्म जब दोबारा रिलीज़ हुई, तो अच्छी ख़ासी चली. रणधीर कपूर ने कहा था, "अभी तक आरके फ़िल्म्स के लिए 'मेरा नाम जोकर' सबसे ज़्यादा मुनाफ़े का सौदा साबित हुई. अब भी इसके टीवी राइट्स बेचने पर हमें सबसे ज़्यादा पैसा मिलता है."

राज कपूर की ड्रीम टीम jh thakker vimal thakker फ़िल्म समीक्षकों का कहना है कि राज कपूर और नरगिस के बीच जब तक केमिस्ट्री बनी रही, आरके फ़िल्म्स ने बेहतरीन फ़िल्में बनाईं.

राज कपूर ने 'बरसात' की कामयाबी के बाद से ही एक टीम बनाई और उस टीम की बदौलत वे एक के बाद एक शाहकार रचते गए.

आरके फ़िल्म्स की स्थापना भले राज कपूर ने की हो, लेकिन 'बरसात' के साथ ही नरगिस इस टीम का अहम हिस्सा रहीं. इन दोनों की केमिस्ट्री को लेकर तमाम बातें होती हैं.

जब 1948 में राज कपूर की नरगिस से पहली मुलाक़ात हुई, तब वो 16 साल की थीं और तब तक वो आठ फ़िल्मों में काम कर चुकी थीं. राज कपूर की उम्र उस समय 22 साल थी और अभी तक उन्हें कोई फ़िल्म निर्देशित करने का मौक़ा नहीं मिला था.

'बरसात' फ़िल्म बनते-बनते नरगिस राज कपूर एक दूसरे पर निर्भर साथी बन गए थे.

मधु जैन अपनी किताब, 'फ़र्स्ट फ़ैमिली ऑफ़ इंडियन सिनेमा- द कपूर्स' में लिखती हैं, "नरगिस ने अपना दिल, अपनी आत्मा और यहाँ तक कि अपना पैसा भी राज कपूर की फ़िल्मों में लगाना शुरू कर दिया. जब आरके स्टूडियो के पास पैसों की कमी हुई, तो नरगिस ने अपने सोने के कड़े तक बेच डाले. उन्होंने आरके फ़िल्म्स के कम होते ख़ज़ाने को भरने के लिए बाहरी प्रोड्यूसरों की फ़िल्मों जैसे 'अदालत', 'घर संसार' और 'लाजवंती' में काम किया."

राज कपूर के छोटे भाई शशि कपूर ने 'लिविंग लीजेंड राज कपूर' डॉक्यूमेंट्री में कहा है, "नरगिस आरके फ़िल्म्स की जान थीं. उनका कोई सीन न होने पर भी वो सेट्स पर मौजूद रहती थीं."

इस बारे में भी बहुत चर्चा होती है कि राज कपूर और नरगिस की शादी नहीं हो सकी, क्योंकि राज कपूर पहले से ही शादीशुदा थे. ख़्वाजा अहमद अब्बास ने भी माना था कि नरगिस को यह अंदाज़ा हो गया था कि राज कपूर उनसे शादी नहीं करेंगे, इसलिए उन्होंने अलग रास्ता चुन लिया था.

नरगिस को केंद्र में रखते हुए ही राज कपूर ने सिमी गरेवाल की डॉक्यूमेंट्री में कहा था, "मेरे लिए पहले दिन से यह तय था कि मेरी पत्नी, मेरी अभिनेत्री नहीं है और मेरी अभिनेत्रियां, मेरी पत्नी नहीं हैं."

शायद इसी व्यावहारिक नज़रिए के चलते नरगिस की आरके फ़िल्म्स से विदाई के बाद भी राज कपूर का करिश्मा बरकरार रहा. वे वैजयंती माला, ज़ीनत अमान, पद्मिनी कोल्हापुरे और मंदाकिनी के साथ भी सुपरहिट फ़िल्म बनाने में कामयाब रहे.

लेकिन इन फ़िल्मों में वे अपने उस सर्वश्रेष्ठ के आसपास नहीं पहुँच सके, जिसे नरगिस के साथ पर्दे पर वे उतारने में कामयाब रहे.

संगीत में भी राज कपूर का दख़ल Film Heritage Foundation संगम (1964) राज कपूर की पहली कलर फ़िल्म थी

राज कपूर गाते गुनगुनाते अपनी फ़िल्मों की ना केवल धुन बना लेते थे, बल्कि गाने भी तैयार करवा लेते थे. राज कपूर अपनी फ़िल्म के निर्देशन और कहानी पर जितना ध्यान देते थे उतना ही उसके संगीत पर. वे खुद कई तरह के वाद्य यंत्रों को बजाना जानते थे.

सिम्मी गरेवाल की डॉक्यूमेंट्री में राजकपूर खुद कहते हैं, 'मेरी फ़िल्मों के गीत-संगीत सबसे पहले मेरे अंदर बनते हैं.'

लता मंगेशकर ने एक इंटरव्यू में बताया था, "मैं और मन्ना डे 'घर आया मेरा परदेसी' गाने की रिकॉर्डिंग कर रहे थे. संगीतकार शंकर जयकिशन ने हम दोनों को गाने के बोल और धुन याद करवा दी थी. लेकिन राज कपूर ने आते ही हमारे पूरे दिन की मेहनत पर पानी फेर दिया था."

राहुल रवैल को भी राज कपूर के सहायक के तौर पर काम करने का मौक़ा मिला. उन्होंने बीबीसी हिंदी की सहयोगी पत्रकार मधुपाल से कहा, "राज साहब के बारे में यही कहा जा सकता है कि वे सिनेमा को 360 डिग्री में जानते-समझते थे. उनका भारतीय सिनेमा जगत में बेहद महत्वपूर्ण योगदान रहा है."

फ़िल्मकार अनीस बज़्मी को 'राम तेरी गंगा मैली' में उनके सहायक के तौर पर काम करने का मौक़ा मिला था.

अनीस बज़्मी ने बीबीसी हिंदी के लिए मुंबई में फ़िल्म पत्रकार इक़बाल परवेज़ से बातचीत में कहा, "मैं तो ख़ुशक़िस्मत रहा कि मुझे उनसे सीखने को मिला. मैं तीन-चार साल तक उनके साथ रहा. मुझे उनसे इतना कुछ सीखने को मिला जितना सीखने में 40 साल लग जाते."

जब बिक गया आरके स्टूडियो Randhir Kapoor आरके फ़िल्म्स स्टूडियो 2019 में बिक गया.

15 अगस्त 1947 को देश की आज़ादी के ठीक एक साल बाद 1948 में राज कपूर ने आरके फ़िल्म्स और स्टूडियो की स्थापना की थी.

उन्होंने पहली फ़िल्म 'आग' बनाई थी. इसके बाद देखते ही देखते उन्होंने ऐसी ही कई यादें और भारतीय सिनेमा पर अपनी पहचान की छाप 'बरसात', 'आवारा', 'बूट पॉलिश', 'श्री 420', 'जागते रहो', 'मेरा नाम जोकर', 'सत्यम शिवम सुंदरम', 'बॉबी', 'प्रेम रोग', 'राम तेरी गंगा मैली हो गई' जैसी फ़िल्मों से छोड़ी.

'बरसात' फ़िल्म का एक दृश्य आरके फ़िल्म्स का लोगो बना. जिसमें हीरो के एक हाथ में अभिनेत्री और दूसरे हाथ में वायलिन है. अभिनेत्रियों और संगीत को राज कपूर अपनी तमाम फ़िल्मों में इसी तरह साधे रहे.

राज कपूर के भाई शम्मी कपूर और शशि कपूर भी हिट अभिनेता थे, लेकिन राज कपूर ने इनके साथ तभी काम किया, जब उनके लायक वे विश्वसनीय भूमिका तलाश पाए. शम्मी कपूर, आरके फ़िल्म्स में पहली बार 'प्रेम रोग' में नज़र आए, जबकि शशि कपूर को हीरो के तौर पर 'सत्यम शिवम सुदंरम' में काम करने का मौक़ा मिला.

राज कपूर पर परिवारवाद को बढ़ाने का आरोप भी ख़ूब लगा. हालांकि वे बार बार ये कहते रहे कि उनके पिता के नाम का उन्हें बहुत फ़ायदा नहीं मिला. लेकिन हक़ीक़त यही है कि उनके बेटों को राज कपूर के नाम का बहुत फ़ायदा मिला.

इस पहलू पर फ़िल्म इतिहासकार रामचंद्रन श्रीनिवासन एक क़िस्सा बताते हैं, "राज कपूर एक बार सुभाष देसाई के साथ एक फ़िल्म को लेकर बात कर रहे थे और सुभाष जी बार-बार कह रहे थे कि इसका डायरेक्टर तो मनु ही होगा. राज साहब ने पूछा कि ये मनु कौन है. तो सुभाष देसाई ने बताया कि अपना छोटा भाई है. राज कपूर बोले वो कर लेगा ना डायरेक्ट. तो सुभाष देसाई ने कहा कि डायरेक्टर तो वही रहेगा, भले आपकी जगह किसी और हीरो को लेना पड़ जाए."

1959-60 में ये स्थिति तब थी जब राज कपूर का नाम का डंका बज रहा था, हालांकि 'छलिया' नामक फ़िल्म राज कपूर ने की और मनमोहन देसाई के रूप में भारतीय सिनेमा को नया फ़िल्मकार मिला.

श्रीनिवासन का मानना है कि हो सकता है कि इस वजह से भी राज कपूर ने अपने बच्चों के लिए फ़िल्में बनाने की बात मन में गांठ बांध ली हो.

RK Films and Studios अपने दो बेटों ऋषि कपूर और रणधीर कपूर (दाएं) के साथ राज कपूर

आरके स्टूडियो में फ़िल्में बनाने का सिलसिला सिर्फ़ राज कपूर तक ही सीमित नहीं रहा. रणधीर कपूर ने भी इस सिलसिले को जारी रखा.

उन्होंने फ़िल्म 'कल आज कल' से इस परंपरा को आगे बढ़ाया, जिसके बाद दो और फ़िल्म 'धरम करम' और 'हिना' बनाई.

राज कपूर के दूसरे बेटे राजीव कपूर ने 'प्रेम ग्रंथ' और ऋषि कपूर ने 'आ अब लौट चलें' बनाई. भाइयों के लिए सालों तक इस धरोहर को संभालना और अचानक उसे बेच देना आसान नहीं था. लेकिन सच यही है कि आरके स्टूडियो अब नहीं रहा.

उन्होंने अपने स्टूडियो के बारे में कहा था, "कहां से कहां पहुंच गए, इस स्टूडियो के सहारे. यहां क्या क्या नहीं बना. नहीं तो स्टूडियो क्या है, ईंट है, गारा है, सीमेंट और क्या रखा है."

राज कपूर के निधन के करीब 21 साल के बाद आरके स्टूडियो का मालिकाना हक़ बदल गया. 33 हज़ार वर्ग मीटर में फैले इस स्टूडियो को ऋषि कपूर, रणधीर कपूर और राजीव कपूर ने बेच दिया.

रणधीर कपूर ने आरके स्टूडियो के 2019 में बेचे जाने पर बीबीसी हिंदी से कहा था, "आरके स्टूडियो राज कपूर जी की वजह से ही था. वहाँ की सिर्फ़ ज़मीन ही नहीं वहाँ की हर तस्वीर, हर फ़िल्म उन्हीं के ज़रिए बनाई गई थी. हम तीनों भाइयों ने अपना करियर आरके स्टूडियो से शुरू किया. कई फैंस की तरह हमारे लिए भी ये एक मंदिर था, बचपन से लेकर अब तक यहाँ से हमारी कई यादें जुड़ी हैं, जो आख़िरी साँस तक हमारे साथ रहेगी."

2019 से पहले तक आरके स्टूडियो में कई दुर्लभ तस्वीरें, यादगार फ़िल्मों के पोस्टर, अभिनेता और अभिनेत्रियों के कॉस्ट्यूम्स, जूलरी, 'मेरा नाम जोकर' का क्लोन मास्क, फ़िल्मों से जुड़ी कई चीज़े थीं. लेकिन यहाँ आग लगने से काफ़ी चीज़ें नष्ट हो गई थीं जिसके बाद ही साल 2019 में आरके स्टूडियो को भी गोदरेज प्रॉपर्टीज़ लिमिटेड कंपनी ने ख़रीद लिया था.

आरके स्टूडियो को संजोने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी, इस सवाल का जवाब देते हुए रणधीर कपूर ने कहा था, "ट्रैफ़िक के कारण यहाँ कोई आना नहीं चाहता. अगर हम इस पर पैसा ख़र्च करके एक बार और बनवा भी देते तो ये हमारी बेवक़ूफ़ी होती. कई सालों से यहाँ फ़िल्मों की शूटिंग बंद हो गई है. हम कपूर परिवार ही अपनी तस्वीरें खिंचवाते थे, शूटिंग के लिए कोई इतना दूर आता नहीं और इसमें हमारा ही नुक़सान होता. ऐसे में कुछ करवाकर कोई फ़ायदा नहीं होता."

Getty Images विदेशी शराब पीने के शौकीन राज कपूर ज़मीन पर गद्दे बिछाकर सोते थे.

राज कपूर में जितने बड़े फ़िल्मकार थे, उतने ही साधारण इंसान भी. उनमें इंसानों जैसे तमाम गुण थे. लेकिन उनकी कुछ ख़ासियतें भी थीं.

वे अपने पिता के सामने कभी सिगरेट-शराब नहीं पीते थे. लेकिन खाने पीने के शौकीन ख़ूब थे. इसके चलते उनका वज़न तेजी से बढ़ता गया.

विदेशी शराब पीने के शौकीन राज कपूर ज़मीन पर गद्दे बिछाकर सोते थे. साधारण कपड़े पहनते थे. लेकिन जब भी सिनेमा की बात आती तो उनका असाधारण रूप सामने आता था.

राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार के बीच बहुत गहरी मित्रता थी, लेकिन राज कपूर इन दोनों की तुलना में बहुत कम साल जीवित रहे. महज 64 साल की उम्र में राष्ट्रपति से दादा साहब फाल्के पुरस्कार लेते वक्त उन्हें अस्थमा का अटैक आया.

राष्ट्रपति ने प्रोटोकॉल तोड़ते हुए राज कपूर के पास पहुंच कर उन्हें पुरस्कार दिया, राज कपूर इसके बाद अस्पताल ले जाए गए और फिर एक महीने बाद जिंदगी की जंग हार गए.

लेकिन उनकी यारबाज़ी, खाने पीने की महफिल की चर्चा आज भी होती है. एक समय ऐसा भी था जब बॉलीवुड में राज कपूर की होली की ख़ूब चर्चा होती थी. आरके स्टूडियो की होली का पूरी हिंदी फ़िल्मी इंडस्ट्री साल भर बेसब्री से इंतज़ार करती थी.

पेंगुइन प्रकाशन से प्रकाशित 'बॉलीवुड टॉप 20 सुपरस्टार्स ऑफ़ इंडियन सिनेमा' में राज कपूर पर मेघनाद देसाई ने लिखा है कि राज कपूर हिंदी सिनेमा के पहले ग्लोबल आइकन थे.

मेघनाद देसाई के मुताबिक़ राज कपूर अपने अभिनय क्षमता से भी ग्रेट में शामिल होने का माद्दा रखते थे और फ़िल्म मेकिंग के लिहाज से भी वो महान फ़िल्मकार में शुमार थे.

100वें साल में क्या कुछ हो रहा है

राज कपूर के 100वें जन्मदिन पर देश भर में कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं.

आरके फ़िल्म्स, फ़िल्म हेरिटेज़ फ़ाउंडेशन और नेशनल फ़िल्म अर्काइव ऑफ़ इंडिया ने संयुक्त रूप से भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े शो मैन को याद करते हुए उनकी 10 फ़िल्मों का रेट्रोस्पेक्टिव 13 से 15 दिसंबर के बीच पेश कर रहा है.

इसमें 'आग', 'आवारा', 'श्री 420', 'संगम', 'बॉबी', 'बरसात', 'जागते रहो', 'जिस देश में गंगा बहती है', 'मेरा नाम जोकर' और 'राम तेरी गंगा मैली' जैसी सदाबहार फ़िल्में शामिल हैं.

इन फ़िल्मों को देश भर के 40 शहरों के 135 सिनेमाघरों में प्रदर्शित किया जा रहा है. पीवीआर ऑइनॉक्स और सिनेपोलिस के थिएटरों में आम दर्शकों के लिए टिकट की दर 100 रुपए रखी गई है.

वहीं जिस पृथ्वी थिएटर में राज कपूर ने अभिनय के गुर सीखे थे, उस पृथ्वी थिएटर में उनके सौवें जन्मदिन पर 'दास्तान-ए-राजकपूर' का आयोजन किया जा रहा है.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.

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