बहादुर शाह ज़फ़र के बर्मा में किस तरह बीते थे आख़िरी दिन
यह तय हो जाने के बाद कि बहादुर शाह को मृत्यु दंड नहीं दिया जाएगा, अंग्रेज़ सरकार ने तय किया कि उन्हें भारत से बाहर निर्वासन में रखा जाएगा. इसके लिए कई विकल्पों पर विचार किया गया.
अंडमान को इस बात पर नामंज़ूर कर दिया गया कि वहाँ पर दूसरे और विद्रोहियों को रखा गया है, इसलिए वहाँ पर भारत के पूर्व बादशाह को रखना उचित नहीं होगा.
फिर सरकार को सलाह मिली कि ज़फ़र को दक्षिण अफ़्रीका भेज दिया जाए. इसके लिए केप ऑफ़ गुड होप के गवर्नर से बात हुई और उसने बहादुर शाह ज़फ़र के वहाँ रहने की व्यवस्था भी शुरू कर दी.
अमरपाल सिंह अपनी किताब ‘द सीज ऑफ़ डेल्ही’ में लिखते हैं, "ज़फ़र की उम्र को देखते हुए और ये देखते हुए कि वो शायद लंबी समुद्री यात्रा न कर पाएं, उनके रहने के लिए पड़ोस के देश बर्मा को चुना गया."
उन्होंने लिखा, "लेकिन इसके बारे में बहादुरशाह ज़फ़र को बताया नहीं गया. ये तय हुआ कि लेफ़्टिनेंट ओमानी उनके साथ जाएंगे और ये सुनिश्चित करेंगे कि ज़फ़र का बाहरी दुनिया से कोई संपर्क न रहे."
7 अक्तूबर, 1858 को सुबह 4 बजे, बाबर के दिल्ली जीतने के 332 साल बाद आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने पालकी पर बैठ कर दिल्ली छोड़ा.
उनके साथ उनकी पत्नियों, ज़िदा बचे हुए दो बेटों और नौकरों के साथ कुल 31 लोग थे. ज़फ़र को उस रात 3 बजे जगाकर तैयार होने के लिए कहा गया, लेकिन ये नहीं बताया गया कि उन्हें कहाँ ले जाया जा रहा है.
विलियम डेलरिंपल अपनी किताब ‘द लास्ट मुग़ल’ में लिखते हैं, "ज़फ़र का दल एक काफ़िले में चला. लाँसर्स के घुड़सवारों की एक टुकड़ी सबसे आगे चल रही थी."
उन्होंने लिखा, "उनके पीछे ज़फ़र और उनके दो बेटों की पालकी चल रही थी. उसके दोनों ओर घुड़सवार चल रहे थे."
उन्होंने लिखा, "उसके बाद परदे से ढ़की हुई बेगम ज़ीनत महल की पालकी थी. तीसरी पालकी में उनकी दूसरी पत्नी ताज महल थीं. उसके पीछे बैलगाड़ियों में उनके नौकर चल रहे थे."
13 नवंबर को ज़फ़र का दल इलाहाबाद पहुंचा. वहाँ पर वो तीन दिन रहे. बादशाह के साथ आए कुछ लोगों ने इसके आगे जाने से इनकार कर दिया.
उन लोगों को हिरासत में लेकर इलाहाबाद के किले में डाल दिया गया. 19 नवंबर को बचे हुए 15 लोग मिर्ज़ापुर पहुंचे. वहाँ उनको सेना के स्टीमर ‘सूरमा फ़्लीट’ पर सवार किया गया.
उसी दिन दोपहर दो बजे वो कलकत्ता के लिए रवाना हो गए.
इस बीच भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने रंगून के कमांडर मेजर फेरे को एक पत्र लिखा, "सारे क़ैदियों को कड़ी निगरानी में रखा जाए और उन्हें उन लोगों के अलावा जो उनके साथ गए हैं किसी भी बाहरी व्यक्ति से ज़बानी या लिखित संपर्क न स्थापित करने दिया जाए."
उन्होंने लिखा, "क़ैदियों के साथ कोई अभद्र व्यवहार न किया जाए. उनके रहन सहन की ज़िम्मेदारी सरकार की होगी लेकिन उन्हें कोई मौद्रिक भत्ता न दिया जाए."
चार दिसंबर को पूरा दल डायमंड हार्बर पहुंचा. संयोग से उस समय कलकत्ता में हाल में सत्ता से हटाए गए अवध के पूर्व नवाब वाजिद अली शाह और टीपू सुल्तान के वंशज रह रहे थे.
डेलरिंपल लिखते हैं, "वाजिद अली शाह और उनका परिवार गार्डन रीच इलाक़े में रह रहा था, जबकि टीपू सुल्तान के परिवार को टॉलीगंज क्लब के पास घर दिया गया था. लेकिन सन 1857 के दौरान उन्हें सुरक्षा कारणों से फ़ोर्ट विलियम में शिफ़्ट कर दिया गया था."
डायमंड हार्बर में ज़फ़र के दल को एक दूसरे स्टीमर ‘एचएमएस मगारा’ में चढ़ाया गया. यहाँ से अंतिम मुग़ल बादशाह ने अपने देश की धरती को आख़िरी बार देखा और जहाँ उनकी फिर कभी वापसी नहीं हुई.
पाँच दिन बाद जब 9 दिसंबर को स्टीमर रंगून के बंदरगाह पहुंचा तो वहाँ क़ैदियों को देखने के लिए स्थानीय लोगों और अंग्रेज़ों की भीड़ लगी हुई थी.
लेकिन कैनिंग के निर्देशों के बावजूद मेजर फेरे ने इन लोगों के रहने के लिए कोई स्थाई व्यवस्था नहीं की थी. उनको मेन गार्ड के भवन में ठहराया गया और दूसरे लोगों के रहने के लिए तंबू लगवाए गए.
29 अप्रैल, 1859 को उन्हें एक नए भवन में ले जाया गया. तब तक नए जेलर कैप्टेन नेल्सन डेविस ने लेफ़्टिनेंट एडवर्ड ओमानी की जगह ले ली थी.
डेविस ने लिखा, "नए भवन में चार कमरे हैं. एक कमरा पूर्व बादशाह को दिया गया जबकि दूसरे कमरे में जवाँ बख़्श और उनकी बेग़म को रखा गया. तीसरे कमरा बेग़म ज़ीनत महल को दिया गया."
उन्होंने लिखा, "हर कमरे के साथ गुसलख़ाना जुड़ा हुआ था. चौथे कमरे में शाह अब्बास और उनकी माँ को रखा गया. सारे नौकर या तो बरामदे में रह रहे थे या घर के नीचे."
डेविस ने लिखा, "उनके लिए दो बाथरूम और खाना बनाने की जगह बनवाई गई थी. बादशाह और उनके परिवार के भोजन का ख़र्चा भारत से अधिक था, औसतन 11 रुपये रोज़."
डेविस ने लिखा, "मैंने चार्ज संभालने के बाद हर रविवार और महीने की पहली तारीख़ को उन्हें एक अतिरिक्त रुपया देने का फ़ैसला किया था. उन सभी लोगों को कलम, स्याही और कागज़ देने की मनाही थी. इन सभी लोगों के लिए एक चपरासी, भिश्ती, धोबी और जमादार लगाया गया था."
ज़फ़र की याददाश्त बहुत अच्छी थी लेकिन कुछ दिनों बाद उनके दाँत गिरने शुरू हो गए जिससे उन्हें बोलने में तकलीफ़ होने लगी.
अंग्रेज़ अफ़सरों के वर्णन में बताया गया है कि ज़फ़र को बहुत अच्छे हालात में रंगून में रखा गया था लेकिन इमदाद शादी ने अपनी किताब ‘1857 के मुआहिद शोरा’ में इसकी ठीक उल्टी तस्वीर पेश की है.
उन्होंने लिखा, "मैंने बहादुर शाह को एक चारपाई पर एक पुराने फटे गद्दे पर लेटे हुए देखा. उन्होंने अपना हाथ बढ़ाकर उस पर लगे ज़ख़्मों के निशान दिखाए. ये ज़ख्म उन्हें बिना बिस्तर की चारपाई पर लेटने की वजह से हुए थे."
ये भी पढ़ेंसन 1862 आते-आते बहादुर शाह ज़फ़र 87 साल के हो चुके थे. लेकिन तब तक उनकी तबीयत ख़राब होनी शुरू हो गई थी और उनकी ज़ुबान की जड़ में लकवा मार गया था.
अक्तूबर, 1862 तक उनकी हालत और बिगड़ गई थी और वो अपना खाना निगल पाने में असमर्थ होने लगे थे.
कैप्टेन नेल्सन डेविस ने अपनी डायरी में लिखा था, "वृद्ध व्यक्ति को चम्मच से तरल खाना खिलाया जाता था लेकिन 3 नवंबर के बाद से वो भी उनके गले के नीचे नहीं उतर रहा था. सिविल सर्जन का मानना है कि ज़फ़र बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह पाएंगे."
इसकी तैयारी के लिए डेविस ने ईंटों और चूने की व्यवस्था कराई और ज़फ़र के निवास के पिछले इलाक़े में उन्हें दफ़नाने का स्थान चुन लिया.
आख़िरकार 7 नवंबर की सुबह 5 बजे आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने आख़िरी साँस ली. डेविस ने सुनिश्चित किया कि उनके अंतिम संस्कार में कम से कम लोग मौजूद रहें.
ये भी पढ़ेंउसी शाम 4 बजे रंगून की उमस भरी सर्दी के बीच ब्रिटिश सैनिकों का एक दल बादशाह के पार्थिव शरीर को लेकर उस भवन के पिछवाड़े पहले से बनी कब्र तक पहुंचा.
उस शव के साथ ज़फ़र के दो बेटे और एक मौलवी चल रहा था. परिवार की महिलाओं और बच्चों को उस रस्म में शामिल होने की अनुमति नहीं दी गई थी.
विलियम डेलरिंपल लिखते है, "ब्रिटिश प्रशासन ने न सिर्फ़ पहले से ज़फ़र की क़ब्र खोद रखी थी बल्कि चूने की भी पर्याप्त व्यवस्था कर रखी थी ताकि जल्द से जल्द शव गल जाए."
उन्होंने लिखा, "उनके पार्थिव शरीर को लकड़ी के एक ताबूत में रखकर लाल कपड़े से ढ़का गया था. चूने के ऊपर मिट्टी डालकर उसे समतल कर दिया गया था ताकि एक महीने के अंदर इस बात का नामोनिशान मिट जाए कि यहाँ किसी को दफ़नाया गया था."
एक सप्ताह बाद नेल्सन डेविस ने ब्रिटिश सरकार को भेजी रिपोर्ट में लिखा, "ज़फ़र के निधन के बाद बाक़ी कैदियों से मिलने गया था और मैंने उनको ठीक स्थिति में पाया."
उन्होंने लिखा, "परिवार के किसी व्यक्ति पर वृद्ध व्यक्ति की मौत का कोई असर नहीं हुआ था. उनकी क़ब्र को बाँस की चारदीवारी से घेर दिया गया है."
उन्होंने लिखा, "जब तक बाँस सूखेंगे, उस पूरी जगह पर घास उग आएगी और इस बात का कोई निशान नहीं रहेगा कि अंतिम मुग़ल बादशाह को किस जगह दफ़नाया गया है."
ज़फ़र की मौत की ख़बर एक पखवाड़े बाद 20 नवंबर को दिल्ली पहुंची. मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने ये छोटी सी ख़बर उस दिन के ‘अवध अख़बार’ में पढ़ी.
उसी दिन अख़बार में छपा कि आख़िरकार जामा मस्जिद को दिल्ली के मुसलमानों को सौंपा जा रहा है.
उसी दिन ग़ालिब ने अपनी डायरी में लिखा, "सात नवंबर को जुमे के रोज़ जमाद उल अव्वल की 14 तारीख़ को अबू ज़फ़र सिराजुद्दीन बहादुर विदेशियों के चंगुल से हमेशा के लिए आज़ाद हो गए."
किसी भी भारतीय या ब्रिटिश अख़बार ने ज़फ़र के देहावसान की ख़बर को विस्तार से नही छापा. ज़फ़र की मौत के सात साल बाद साल 1869 में मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस दुनिया को अलविदा कहा.
ये भी पढ़ेंबहादुर शाह ज़फ़र की मौत के बाद उनके परिवार को जेलनुमा घर से बाहर निकलने की अनुमति दे दी गई.
ज़फ़र की पत्नी ज़ीनत महल अपने दो नौकरों के साथ एक लकड़ी के बने घर में रहने लगीं जिसे उन्होंने ख़ुद ख़रीदा था.
विधवा होने के बाद उन्हें सरकार हर महीने 120 रुपए का गुज़ारा भत्ता देने लगी. सन 1868 में सरकार ने उन्हें इस शर्त पर रिहा किया कि वो रंगून नहीं छोड़ेंगी.
उनके भत्ते को बढ़ाकर 250 रुपए महीना कर दिया गया. अपनी बूढ़ी उम्र में उन्होंने सरकार से भारत वापस जाने की अनुमति माँगी लेकिन उनके इस अनुरोध को नामंज़ूर कर दिया गया.
अपने आख़िरी समय में उन्हें अफ़ीम की लत लग गई. सन 1886 में यानी बहादुर शाह ज़फ़र की मौत के 24 साल बाद उन्होंने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
तब तक ज़फ़र की क़ब्र का नामोनिशान मिट चुका था. सन 1905 में रंगून के मुसलमानों ने सरकार से माँग की ज़फ़र की क़ब्र को चिन्हित किया जाना चाहिए.
उन्होंने माँग की कि उन्हें क़ब्र के पास ज़मीन का एक टुकड़ा ख़रीदने की अनुमति दी जाए ताकि वहाँ बहादुर शाह ज़फ़र की याद में एक स्मारक बनवाया जा सके.
शुरू में सरकार ने उनकी बात नहीं मानी.
लेकिन लगातार प्रदर्शनों और अख़बारों में छपे लेखों के बाद सरकार उनकी क़ब्र पर एक खुदा हुआ पत्थर लगवाने के लिए तैयार हुई.
इस पत्थर पर लिखा था, "बहादुर शाह, दिल्ली के पूर्व बादशाह का 7 नवंबर, 1862 को रंगून में निधन हुआ और उनको इस स्थान के पास दफ़नाया गया."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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