काम के बोझ या बचे हुए काम के कारण होता है तनाव, इन बातों से मिल सकती है मदद
दिल्ली के पास स्थित नोएडा के रहने वाले ऋषभ मिश्रा एक आईटी कंपनी में प्रोजेक्ट मैनेजर के पद पर हैं. वो बताते हैं कि दफ़्तर के बाद जब वह शाम को घर जाते हैं, तो उन्हें अक्सर बचे हुए काम के कारण सोने में परेशानी का सामना करना पड़ता है.
ऋषभ का कहना है कि हर पद के साथ कोई न कोई जिम्मेदारी होती है और उससे जुड़े काम को समय से पूरा करने की आपसे उम्मीद की जाती है.
आपको कई सारे काम और इसके साथ ही कई डेडलाइन पर ध्यान देना पड़ता है. आप हर काम को समय से पूरा कर लेना चाहते हैं.
ऋषभ का कहना है कि जिस दिन वो किसी वजह से अपना काम पूरा नहीं कर पाते या उनपर अतिरिक्त काम का बोझ बढ़ जाता है, तो उन्हें सोने में दिक्कत होती है.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए करेंऋषभ का ज़्यादातर समय इस उधेड़बुन में बीत जाता है कि इस काम को कितनी जल्दी और किस तरह पूरा किया जाए.
यह सिर्फ ऋषभ की ही समस्या नहीं है, बल्कि दिल्ली की एक फ़र्म में पेशे से वकील आदित्य महेश्वरी भी काम के बोझ या अधूरे काम के कारण होने वाले तनाव की बात कहते हैं.
जर्मनी में की गई एक स्टडी में भी यही बात निकलकर सामने आई है.
आदित्य बताते हैं कि कभी-कभी कोर्ट में कुछ दिनों के अंतराल पर ही एक साथ चार-पांच केस की सुनवाई आ जाती है. ऐसे में काम का बोझ बढ़ जाता है और घर जाने के बाद भी दिमाग में काम ही चलता रहता है.
वो कहते हैं कि बचे हुए काम और आने वाले कामों की चिंता में वह समय से सो नहीं पाते हैं, जिससे उनकी दिनचर्या प्रभावित होती है.
ये भी पढ़ेंजर्मनी में एक आईटी कंपनी के कर्मचारियों पर की गई स्टडी में यह पता चला है कि जिन कर्मचारियों का काम सप्ताह के आख़िर में ज़्यादा बचा रह गया था, वे सप्ताह के अंत में काम के बारे में ज्यादा सोचते हैं.
वहीं, जिन कर्मचारियों का सप्ताह के अंत में कम काम बचा रह गया था, वे काम के बारे में कम सोचते हैं.
ट्रियर विश्वविद्यालय की शोधकर्ता क्रिस्टीन सिरेक ने लिखा है कि उनकी स्टडी यह बताती है कि सप्ताह में काम को पूरा न कर पाना कर्मचारियों के अंदर प्रिज़र्वेटिव कॉग्निशन (भविष्य को लेकर नकारात्मक सोच) को बढ़ाती है, जिससे .
पहले हो चुकी नकारात्मक चीज़ें या भविष्य में होने वाली नकारात्मक चीज़ों को लेकर दिमाग में आने वाले विचारों की स्थिति को 'प्रिज़र्वेटिव कॉग्निशन' कहते हैं.
दिल्ली स्थित सर गंगाराम अस्पताल के इंस्टिट्यूट ऑफ साइकाइट्री एंड बिहेवरियल साइंस के वॉइस चेयरपर्सन और सीनियर साइकेट्रिस्ट कंसल्टेंट डॉक्टर प्रोफ़ेसर राजीव मेहता का कहना है कि मुख्यत: दो चीजें होती हैं. पहला, स्ट्रेस यानी तनाव और दूसरा स्ट्रेसर यानी तनाव की वजह.
डॉ राजीव कहते हैं कि अगर हम संक्षेप में बात करें, तो चार तरह के स्ट्रेसर होते हैं. सारी बातें इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती हैं. जैसे-
- काम से जुड़ा हुआ
- फाइनेंस से जुड़ा हुआ
- रिलेशनशिप से जुड़ा हुआ
- स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ
डॉ राजीव मेहता कहते हें कि काम के बोझ के कारण स्ट्रेस से जुड़े मामलों में 25-50 साल तक के लोग शामिल हैं और दिन ब दिन ऐसे मामले बढ़ते जा रहे हैं.
राजीव मेहता कहते हैं कि भारत में लेबर कम क़ीमत पर उपलब्ध है, इसलिए यहां कंपनियां आ रही हैं.
वो कहते हैं, "यहां पर कंपनियां एक आदमी से तीन-चार आदमी का काम कराना चाहते हैं, इसलिए काम से जुड़े हुए स्ट्रेस के मामले बढ़ते जा रहे हैं. रोजमर्रा के जीवन में हमारे पास ऐसे मामले आ रहे हैं."
वहीं साइकेट्रिस्ट कंसल्टेंट स्वाती त्यागी का कहना है कि यह समस्या सिर्फ़ बड़ी कंपनी में काम करने वाले लोगों में ही नहीं, बल्कि दिहाड़ी मज़दूरी करने वालों और छात्र में भी ऐसी समस्या देखी जा रही है.
वो कहती हैं, "हमारे पास आने वाले ज़्यादातर मरीज़ों की उम्र 40-45 साल के बीच होती है."
स्वाति त्यागी बताती हैं कि "अगर हमारे पास 40-45 मरीज़ आते हैं, तो उसमें से 15-20 मरीज़ नौकरीपेशा लोग होते हैं. इनमें से 50-60 प्रतिशत लोग एंज़ाइटी और डिप्रेशन से ग्रसित होते हैं, जो उनके काम से जुड़ा होता है.
वे कहती हैं, "मरीज़ बताते हैं कि काम के बोझ, डेडलाइन पर काम को पूरा न कर पाना, ऑफ़िस के माहौल के अच्छे ना होने की वजह से उनको समस्या का सामना करना पड़ रहा है. इस कारण वो वर्क लाइफ़ बैलेंस नहीं बना पाते हैं.
तनाव दूर करने के लिए आप काउंटिंग कर सकते हैं. आप ख़ुद को अपनी चिंताओं से दूर ले जाकर कुछ देर के लिए किताब पढ़ सकते हैं.
आप अपनी सांस पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं. या तो आप अपने बचे हुए और पूरा किए जाने वाले कामों की सूची (टू डू लिस्ट) बना सकते हैं.
आप अपने कामों की सूची बनाएं, वो सभी काम जो आपको पूरे करने हैं. और देखें कि आपको कौन सी बात सबसे ज्यादा परेशान कर रही है.
आप उस बात को पेपर पर लिखें. अमेरिका में की गई एक स्टडी में यह तरीका है.
अमेरिका स्थित बायलर विश्वविद्यालय में स्लीप न्यूरोसाइंस और कॉग्निशन लेबोरटी के निदेशक माइकल स्कलिन ने वालियंटर्स के एक ग्रुप को दिन भर में किए उनके कामों की सूची बनाने को कहा.
वहीं, दूसरे ग्रुप से माइकल ने उन कामों की सूची बनाने को कहा, जो उन्हें अगले दिन या आने वाले कुछ दिनों में करने थे.
स्टडी में पाया गया कि जिन लोगों ने यह सूची बनाई थी कि उन्हें आने वाले दिनों में क्या-क्या करना है, उन्हें जल्दी नींद आई. दूसरे ग्रुप को पहले ग्रुप की तुलना में पहले नींद आई.
वैज्ञानिकों ने सिर्फ़ वालंटियर्स के आकलन पर विश्वास नहीं किया बल्कि नाम के नींद से जुड़े अध्ययन के ज़रिए इसकी पुष्टि भी की कि वालंटियर्स कब जाग रहे हैं और कब सो रहे हैं.
पॉलीसोम्नोग्राफी के तहत व्यक्ति के दिमाग और शरीर के अन्य अंगों पर सेंसर लगाए जाते हैं, जिससे ब्रेन वेव्स, सांस और गतिविधियों पर नज़र रखी जाती है.
ये भी पढ़ेंसीनियर साइकेट्रिस्ट कंसल्टेंट राजीव मेहता कहते हैं कि जब कंपनी ज्यादा काम देती है और कर्मचारी उतना काम नहीं कर पाते हैं.
तब काम पूरा ना कर पाने पर कर्मचारी को नौकरी जाने का डर बना रहता है. यही बात कर्मचारी के दिमाग में हमेशा चलती रहती है, जिससे कर्मचारी के दिमाग में स्ट्रेस बना रहता है.
वे कहते हैं, "इसमें कोई संदेह नहीं है कि कामों की सूची बनाना अच्छी चीज़ है, लेकिन अगर आप नौकरीपेशा हैं तो आपको यह समझना भी ज़रूरी है कि आप वह सूची कंपनी के हिसाब से बना रहे हैं या अपने हिसाब से बना रहे हैं."
राजीव मेहता कहते हैं "इस तरह की सूची बनाने से आपका काम ऑर्गनाइज़्ड हो जाता है, जिससे आपका काम समय से पूरा होने के चांसेस बढ़ जाते हैं."
कभी-कभी लोग ज्यादा लंबी सूची बना लेते हैं, जो वास्तविकता से दूर होती है.
वो कहते हैं, "अगर आपके पास काम के लिए आठ घंटे या 10 घंटे हैं, लेकिन आपका काम ख़त्म ही 12-14 घंटे में हो सकता है, तो सूची बनाने से ज्यादा लाभ नहीं होगा."
लेकिन, अगर आप बनाते हैं तो आपके के लिए बेहतर ही रहेगा.
राजीव मेहता कहते हैं कि कामों की सूची बनाना तभी कारगर है, जब आपका काम एक दिन में या वर्किंग समय में पूरा होने लायक हैं और अगर आप लगातार अपना काम कर रहे हैं.
साइकेट्रिस्ट कंसल्टेंट स्वाती त्यागी का कहना है कि स्ट्रेस के मामलों में हम लोगों को काउंसलिंग के लिए भेजते हैं.
वो कहती हैं, "हम उनसे डायरी लिखने के लिए बोलते हैं. जो भी चीजें आपको रोजमर्रा के जीवन में परेशान करती हैं, हम उनको लिखने के लिए कहते हैं."
"क्योंकि, लोग कभी-कभी यह नहीं समझ पाते हैं कि उन्हें क्या चीज़ परेशान कर रही है. समस्या का पता लगाने के लिए हम उन्हें डायरी लिखने के लिए बोलते हैं."
माइकल स्कलिन की स्टडी से स्वाति त्यागी भी सहमति व्यक्त करती हैं. वो कहती हैं कि तनाव को कम करने के लिए लिखना बहुत कारगर तरीका और यह डायरी राइटिंग का ही भाग है.
ये भी पढ़ेंजब आप सोने जाने से पहले चीज़ों को पेपर पर लिखते हैं तो आप एक तरीके से अपने दिमाग से कामों को पेपर पर डाउनलोड कर लेते हैं, जिससे जब आप सोने जाते हैं तो आप उन कामों के बारे में कम सोचते हैं. ये बातें आपके दिमाग में नहीं घूमतीं, बल्कि एक तरह से क्रम में लिख दी गई होती हैं.
प्रोफे़सर स्कलिन की स्टडी में यह पाया गया है कि वे लोग जिन्होंने 10 से ज्यादा कामों की सूची बनाई थी, उनको सूची न बनाने वाले लोगों से 15 मिनट पहले नींद आई.
जिन लोगों ने कम कामों की सूची बनाई थी, उनकी तुलना में भी 10 से ज्यादा कामों की सूची वाले लोगों को छह मिनट पहले नींद आई. इसलिए, ज़रूरी है कि आप अपने कामों की सूची अच्छे से तैयार करें.
यह कहना ठीक होगा कि प्रोफे़सर स्कलिन की स्टडी बहुत बड़ी नहीं है, लेकिन एक साइकोलॉजिकल मैकेनिज्म है, जो यह समझा सकता है कि उन्हें ऐसे परिणाम क्यों मिले.
इसे कॉग्निटिव ऑफ़लोडिंग कहते हैं और यह तब होता है जब कोई व्यक्ति मानसिक भार को कम करने के लिए कोई शारीरिक क्रिया करता है.
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