राकेश शर्मा के बाद कोई भारतीय कब अंतरिक्ष में जा पाएगा और कब होगा अपना स्पेस स्टेशन?
इस साल जून में सुनीता विलियम्स और बैरी विल्मोर बोइंग के स्टारलाइनर अंतरिक्ष यान से अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन गए थे.
यह एक टेस्ट मिशन था, जिसमें उन्हें आठ दिन के बाद वापस धरती पर लौटना था, मगर यान में कुछ तकनीकी दिक्कतों के चलते उसे वापसी के लिए सुरक्षित नहीं माना गया जिसकी वजह से उनकी वापसी अब तक नहीं हो पाई है.
इन सबके बीच भारत का अंतरिक्ष मिशन भी लगातार चर्चा में है. भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम पिछले कुछ साल में बहुत आगे बढ़ चुका है. इसरो ने चंद्रयान, मंगलयान और चंद्रयान-3 जैसे मिशन के साथ अपनी पैठ बनाई है.
हालांकि, इसरो ने अब तक किसी इंसान को अंतरिक्ष नहीं भेजा है, लेकिन गगनयान मिशन के तहत ऐसा करने की भारत की तैयारियां तेज़ हैं.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिएबीबीसी हिन्दी के साप्ताहिक कार्यक्रम, 'द लेंस' में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म मुकेश शर्मा ने अंतरिक्ष से जुड़े कई सवालों पर चर्चा की.
इस चर्चा में इसरो के साथ-साथ सुनिता विलियम्स और बैरी विल्मोर का तय समय से अधिक अंतरिक्ष में रहना भी शामिल है.
दरअसल, सुनिता विलियम्स और बैरी विल्मोर के बारे में कई मीडिया रिपोर्ट्स में ये कहा गया कि वे वहां फंसे हुए हैं, मगर क्या सच में इसे फंसने के रूप में देखा जाए?
क्या सुनीता विलियम्स और बैरी विल्मोर का तय समय से अधिक समय तक अंतरिक्ष में रहना उनके स्वास्थ्य पर असर डाल रहा होगा?
अंतरिक्ष में यात्री इतना समय कैसे बिताते हैं? वहाँ पर वे क्या करते हैं? इसके अलावा, भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम इन घटनाओं से क्या सीख रहा है और भारत कब इंसान को अंतरिक्ष में भेज पाएगा?
'द लेंस' की इस चर्चा में भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा और एनडीटीवी के साइंस एडिटर पल्लव बागला शामिल हुए.
भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा का कहना है कि सुनीता विलियम्स और बैरी विल्मोर ने जिस बोइंग के यान से अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन तक यात्रा की, वह एक टेस्ट फ्लाइट थी.
इस फ्लाइट के दौरान कुछ तकनीकी ख़राबियां सामने आईं, जिनके कारण यान को वापस भेजने में सुरक्षा जोखिम हो सकता था.
मिशन कंट्रोल और अंतरिक्ष यात्रियों को यह लगा कि अगर वे उसी यान से वापसी करेंगे, तो यह उनके लिए ख़तरनाक हो सकता है, इसलिए वापसी मिशन को टाल दिया गया.
इस कारण, सुनीता विलियम्स और बैरी विल्मोर छह महीने से अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में हैं.
इस पर राकेश शर्मा कहते हैं, "जो लोग इस पर घबराहट या चिंता जता रहे हैं, उन्हें घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है. ऐसा नहीं है कि इंसान लंबे समय तक अंतरिक्ष में रह नहीं सकता. इंसान ने पहले भी 400 से ज़्यादा दिन अंतरिक्ष में बिताए हैं, जैसे कि रूसी अंतरिक्ष यात्री वैलेरी पॉलाकोव."
"इसलिए, सुनीता और बैरी का अतिरिक्त समय अंतरिक्ष में रहना कोई असामान्य बात नहीं है. वे सुरक्षित हैं और उनके स्वास्थ्य पर नज़र रखी जा रही है."
एनडीटीवी के साइंस एडिटर पल्लव बागला ने सुनीता विलियम्स और बैरी विल्मोर के अंतरिक्ष मिशन पर अपनी राय रखते हुए कहा, "सुनीता विलियम्स और बैरी विल्मोर पहले भी अंतरिक्ष में जा चुके थे और जब वे गए थे, तब उन्होंने बोइंग स्टारलाइनर को बनाने में मदद की थी, इसलिए उन्हें उस यान की अंदर तक की जानकारी थी."
बागला ने कहा, "अब सुनीता विलियम्स को अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन का कमांडर घोषित किया गया है. वह अंतरिक्ष स्टेशन पर बहुत खुश हैं और आज भी वह कहती हैं कि अंतरिक्ष उनका दूसरा घर है."
पल्लव बागला ने यह भी कहा कि अंतरिक्ष में जाना हमेशा जोखिम से भरा होता है. उन्होंने अमेरिका के पहले खोए गए दो स्पेस शटल के उदाहरण दिए, जिससे यह साबित होता है कि अंतरिक्ष मिशन में ख़तरे हो सकते हैं.
पल्लव बागला कहते हैं, "इसलिए, नासा और बोइंग के बीच मतभेद थे. बोइंग का कहना था कि स्टारलाइनर वापसी के लिए सुरक्षित है, लेकिन नासा को रिस्क नहीं लेना था."
छह महीने से अंतरिक्ष में फंसे नासा के दोनों अंतरिक्ष यात्रियों सुनीता विलियम्स और बैरी बुच विल्मोर को अगले साल फ़रवरी में स्पेसएक्स से धरती पर वापस लाया जाएगा.
अक्सर लोग यह सवाल करते हैं कि अंतरिक्ष में दिन कैसे गुज़रते हैं? क्या हम जिस तरह धरती पर रहते हैं, क्या उसी तरह हम अंतरिक्ष में भी रह सकते हैं? वहां समय कैसे बिताते हैं और वहां से हमें कौन-कौन सी चीज़ें दिखती हैं?
इस सवाल पर राकेश शर्मा कहते हैं, "जब कोई इंसान अंतरिक्ष में होता है तो वह बहुत व्यस्त रहता है. जब मैं आठ दिनों के लिए अंतरिक्ष में गया था, तो मुझे इतना भी समय नहीं मिला कि मैं खिड़की से बाहर देखूं कि क्या हो रहा है. हम वैज्ञानिक प्रयोगों (एक्सपेरिमेंट्स) में इतने व्यस्त रहते हैं कि दिन का समय नहीं पता चलता."
राकेश शर्मा के मुताबिक़, "जो भी अंतरिक्ष में जाता है, वह पर्यटक बनने के बजाय वैज्ञानिक बनकर जाता है. उनका मुख्य मक़सद यही होता है कि वह स्पेस स्टेशन का पूरा इस्तेमाल करे, इसलिए वह लगातार एक्सपेरिमेंट करते रहते हैं."
राकेश शर्मा का कहना है, "मेरे हिसाब से, वे (सुनीता विलियम्स और बैरी विल्मोर) वहां बोर नहीं हो रहे होंगे, उनके पास बहुत काम होता है."
अंतरिक्ष में इंसान के शरीर पर क्या असर पड़ता है? Getty Images अंतरिक्ष यात्रियों को कई तरह की दिक्कतें होती हैं, जिनमें हड्डियों का कमज़ोर होना और मांसपेशियों का सिकुड़ जाना शामिल है (सांकेतिक तस्वीर)अंतरिक्ष में रहने से मानव शरीर पर कई प्रकार के प्रभाव होते हैं. राकेश शर्मा इस विषय पर कहते हैं, "अंतरिक्ष में ग्रेविटी नहीं होती, जिससे शरीर के अंदर कई बदलाव होते हैं."
"सबसे पहले तो यह होता है कि किसी भी चीज़ का भार नहीं होता, जिससे मसल्स का काम कम हो जाता है. इससे मांसपेशियों की ताकत कम होती है और मस्कुलर टोन घटता रहता है. साथ ही, हमारा हृदय भी एक प्रकार की मांसपेशी है और उन्हें स्वस्थ रखने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाने होते हैं."
राकेश शर्मा बताते हैं कि, "अंतरिक्ष में रहने से पीठ के लिगामेंट्स खिंचते हैं, जिसके कारण कद बढ़ सकता है. यह एक असामान्य स्थिति है, क्योंकि ग्रेविटी के कारण शरीर का आकार सामान्य रहता है, लेकिन बिना ग्रेविटी के शरीर का आकार थोड़े समय के लिए बदल सकता है, जिससे कुछ दिक्कतें आ सकती हैं."
इस पर पल्लव बागला कहते हैं, "आपने देखा होगा कि जब अंतरिक्ष यात्री वापस आते हैं तो उन्हें चलने में दिक्कत होती है क्योंकि अंतरिक्ष में उनके पैरों पर भार नहीं पड़ता."
"लोग सोचते हैं कि वे बीमार हो गए हैं, लेकिन ऐसा नहीं होता. जब आप इतना लंबा समय बिना ग्रेविटी के बिताते हैं तो आपका शरीर सामान्य स्थिति में वापस आने में समय लेता है."
पल्लव बागला का कहना है कि, "आजकल अंतरिक्ष में आना-जाना बहुत सामान्य हो गया है और आने वाले समय में यह और भी सामान्य होता जाएगा. हालांकि, जब अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर अंतरिक्ष यात्री रहते हैं, तो उनके पास अपने शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए पूरी व्यवस्था होती है."
पल्लव बागला आगे कहते हैं, "इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन का आकार लगभग एक फुटबॉल फील्ड के बराबर होता है, जिसमें अलग-अलग देशों की कैप्सूल्स होती हैं. इन सभी कैप्सूल्स में फिज़िकल एक्सरसाइज़ करने के लिए सामग्री उपलब्ध होती है."
"जब पिछली बार सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में गई थीं, तो उन्होंने एक मैराथन रन पूरा किया था और उन्होंने बताया कि मसल लॉस (मांसपेशियों की कमी) और बोन डेंसिटी लॉस (हड्डियों का वज़न कम होना) को बचाने के लिए वे किस तरह अपने एक्सरसाइज़ को बढ़ा रही हैं."
पल्लव बागला यह भी बताते हैं, "अंतरिक्ष यात्रियों को हड्डियों और मांसपेशियों की ज़रूरत के लिए हर दिन वज़न उठाने और वाइब्रेशन एक्सरसाइज़ करने के उपकरण दिए जाते हैं. इससे उनकी मांसपेशियों और हड्डियों को मज़बूत बनाए रखने में मदद मिलती है."
उनका कहना है कि अमेरिका चांद पर स्थायी रिहाइश की योजना बना रहा है, ऐसे में अब साइंस काफी आगे जा चुका है और अब यह डरने वाली बात नहीं रह गई है.
राकेश शर्मा कहते हैं, "अंतरिक्ष में जाने से पहले गहन ट्रेनिंग होती है. आपको अपने यान के बारे में सबकुछ जानना होता है, ताकि आप किसी भी आपातकालीन स्थिति में सही निर्णय ले सकें."
"साथ ही, यह भी समझना होता है कि अंतरिक्ष में आपके शरीर पर क्या असर पड़ेगा. ट्रेनिंग के दौरान शरीर को इस तरह से तैयार किया जाता है कि स्पेस सिकनेस जैसी समस्याओं से बचा जा सके, जिससे मिशन पर असर न पड़े."
"यह ट्रेनिंग मिलिट्री एविएशन या सिविल एविएशन की तरह होती है, जहां यात्रियों को हर स्थिति को मना करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है."
पल्लव बागला बताते हैं, "हाल में एक अध्ययन में दिखाया गया कि इसरो के एक रुपये पर दो रुपये 52 पैसे का फायदा हुआ है. इसका मतलब है कि इसरो ने अपनी टेक्नोलॉजी से भारी निवेश का लाभ दिया है."
"हमारे पास इतने सक्षम रॉकेट हैं जो एक अंतरिक्ष यात्री को अंतरिक्ष में भेज सकते हैं, जैसे हमारा मार्क-3 लॉन्च व्हीकल जिसका मानव रेटेड संस्करण तैयार है."
"हालांकि, भारत का पहला गगनयान अंतरिक्ष में नहीं जाएगा, क्योंकि स्पेसएक्स के फाल्कन- 9 रॉकेट और क्रू ड्रैगन की मदद से भारतीय अंतरिक्ष यात्री अगले साल अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर जाएंगे जो एक इंडो-यूएस मिशन होगा."
पल्लव बागला आगे कहते हैं, "सुनीता विलियम्स के अनुभव से इसरो ने सीखा है कि अंतरिक्ष यात्रा के लिए सिर्फ एक प्लान नहीं, बल्कि प्लान-ए और प्लान-बी दोनों होने चाहिए. इसलिए गगनयान मिशन में थोड़ा और समय लगेगा. उम्मीद है कि साल 2026 तक भारत पहला मानव मिशन भेजेगा."
वो आगे कहते हैं, "इसके साथ ही, भारत के प्रधानमंत्री ने इसरो के लिए एक लंबा रोडमैप तैयार किया है, जिसमें साल 2026 तक गगनयान मिशन होगा, उसके बाद भारत का अपना स्पेस स्टेशन बनाने और 2040 तक भारतीय को चांद पर भेजने का लक्ष्य रखा गया है."
राकेश शर्मा कहते हैं, "जब हमने अंतरिक्ष विज्ञान की शुरुआत की, तब हम एक डेवलपिंग नेशन थे. विक्रम साराभाई का विज़न था कि हमारे पास पैसे कम हैं, इसलिए स्पेस गतिविधियाँ किफायती होनी चाहिए और इनसे लोगों का फायदा होना चाहिए."
"इसीलिए इसरो ने मानव अंतरिक्ष मिशन पर ज़्यादा फोकस नहीं किया, क्योंकि हम रूस और अमेरिका से मुकाबला नहीं कर रहे थे. हमारा फोकस था कि हम सैटेलाइट के ज़रिए टेलिविज़न और शिक्षा में सुधार कर सकें, ताकि देश के कोने-कोने तक कनेक्टिविटी पहुंच सके."
राकेश शर्मा का मानना है कि 'अंतरिक्ष में ज़्यादा बदलाव नहीं आया है, वह अब भी वैसा ही है. हालांकि, एस्टेरॉयड की टक्कर से बचने के लिए आज हमें ऐसी टेक्नोलॉजी मिल गई है, जिससे हम पता कर सकते हैं कि कौन सा एस्टेरॉयड धरती की ओर आ रहा है और हम उसे 15-20 साल पहले दिशा बदलने के लिए यान भेज सकते हैं.'
भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को लेकर राकेश शर्मा कहते हैं, "हमारे अंतरिक्ष मिशन स्पेशलाइज्ड होते हैं. उदाहरण के लिए, मंगलयान मिशन ने दुनिया को दिखा दिया कि भारत कम बजट में भी बड़ा काम कर सकता है."
"हालांकि, चंद्रमा या मंगल मिशन जैसे अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में भारत का योगदान तकनीकी दृष्टि से विशेष होगा, क्योंकि हम इसे कम खर्च में सुरक्षित तरीके से पूरा करने की दिशा में काम कर रहे हैं."
इस पर पल्लव बागला कहते हैं, "जब तक यह सब इसरो के पास है, तब तक इसकी लागत कम रहेगी, लेकिन जैसे ही प्राइवेट सेक्टर का प्रवेश होगा, लागत बढ़ सकती है. अमेरिका में प्राइवेट कंपनियां स्पेस प्रोग्राम चला रही हैं और वहां शेयर होल्डरों के लाभ का ध्यान रखना होता है."
पल्लव बागला आगे कहते हैं, "इसरो के वैज्ञानिक कम सैलरी पर भी 12-14 घंटे काम करने के लिए तैयार रहते हैं. लेकिन जब प्राइवेट सेक्टर में आने वाली कंपनियां सैलरी बढ़ाने की दिशा में काम करेंगी, तो हमें भी सैलरी बढ़ानी पड़ेगी, क्योंकि यही बदलाव स्पेस मिशन को सफल और आर्थिक रूप से स्थिर बनाएगा."
हालांकि, उन्होंने यह भी बताया, "स्पेसएक्स का फाल्कन-9 हमारे रॉकेट से सस्ता है, लेकिन भारत ने अब तक 90 उड़ानें की हैं, जबकि स्पेसएक्स ने अकेले साल 2024 में 125 उड़ानें की हैं."
"हमारे नेशनल प्रोग्राम का उद्देश्य देश की ज़रूरतें पूरी करना है. जब हमें प्राइवेट कंपनियों से मुकाबला करना होगा, तो उनकी लागत बढ़ेगी, लेकिन हम गुणवत्ता और मात्रा दोनों में मुकाबले में बने रहेंगे."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां कर सकते हैं. आप हमें , , और पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)