सलीम ख़ान और जावेद अख़्तर का बॉलीवुड में क्यों था दबदबा
सलीम-जावेद पर आधारित डॉक्युमेंट्री सिरीज़ ‘दि एंग्री यंग मेन’ इसी हफ़्ते प्राइम वीडियो पर रिलीज़ हो रही है.
ये भारत के सिनेमा इतिहास में एक बड़ी घटना है. आमतौर पर अभिनेता, अभिनेत्री, निर्माता, निर्देशक, यहां तक कि संगीतकार और गायक-गायिकाओं पर डॉक्युमेंट्री से लेकर बायोपिक तक बन चुके हैं. मगर स्क्रीनराइटर्स पर ऐसा कुछ नहीं बना.
लेखकों के बिना किसी फिल्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती. मगर आमतौर पर लेखक फिल्म की कामयाबी की चर्चा से ग़ायब ही रहते हैं. बिल्कुल सलीम-जावेद के लिखे किरदार ‘मिस्टर इंडिया’ की तरह.
लेकिन 50 साल बीतने के बाद भी सलीम-जावेद फिल्म लेखन में बेमिसाल किरदार हैं.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें एक नाम के दो लेखक क्या लिखते होंगे? Getty Images फिल्म जंजीर में अमिताभ बच्चन के लिए डायलॉग भी सलीम-जावेद ने ही लिखे थेजब मैं बड़ा हो रहा था और पहली बार ‘ज़ंजीर’ देखी तो सोचा कि अमिताभ बच्चन ने क्या शानदार लाइन बोली है- “जब तक बैठने को न कहा जाए शराफ़त से खड़े रहो, ये पुलिस स्टेशन है, तुम्हारे बाप का घर नहीं”.
मैं अमिताभ बच्चन का फैन बन गया था.
फिर पता चला कि ये लाइन अमिताभ ने ख़ुद सोचकर नहीं बोली है. मुझे बताया गया कि इसे सलीम-जावेद ने लिखी है.
बचपन के कई साल तक मैं समझता रहा कि सलीम जावेद एक ही आदमी का नाम है, जो ये कमाल की लाइनें लिखता है.
हमारे एक पारिवारिक मित्र भी थे, जिनका नाम सलीम जावेद था.
ख़ैर अमिताभ बच्चन की दीवानगी में मैंने उनकी कई फिल्में देखीं, जिनमें एक बात कॉमन थी- सबकी पटकथा सलीम जावेद ने लिखी थी.
बाद में जब साफ़ हुआ कि ये तो दो लेखक हैं जो साथ में फिल्में लिखते हैं तो बड़ी हैरानी हुई.
इसका क्या मतलब है? मन में सवाल उठा कि दोनों लेखकों में कौन क्या लिखता है?
क्या ‘मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है’ जावेद अख़्तर ने लिखा होगा? और उसके बाद की लाइन, ‘मेरे पास मां है’ सलीम ख़ान ने?
‘जब तक बैठने को न कहा जाए…’ तक शायद सलीम ख़ान ने लिखा होगा और उसके बाद की लाइन “ये पुलिस स्टेशन है तुम्हारे बाप का घर नहीं” जावेद अख़्तर ने?
‘बुराई ने बंदूक़ चलाना सिखा दिया था, नेकी हल चलाना सिखा देगी’ क्या शानदार लाइन थी.
क्या जय की लाइनें सलीम ख़ान ने लिखी होंगी और वीरू की जावेद अख़्तर ने? फिल्मों से दीवानेपन वाले अपने बचपन में ऐसे ही कई पसंदीदा डायलॉग में आधा-आधा क्रेडिट बांट कर मैं ख़ुश हो लिया करता था.
बहुत साल बाद जब फ़िल्म पत्रकारिता से जुड़ा और सलीम ख़ान और जावेद अख़्तर से अलग-अलग मुलाक़ात हुई, तब भी ये सवाल बरक़रार था.
अब तक ये पता चल चुका था कि फिल्म लेखन में मूल रूप से तीन चीज़ें प्रमुख होती हैं- कहानी, पटकथा (स्क्रीनप्ले) और डायलॉग. इन तीनों का ही क्रेडिट सलीम-जावेद को साथ में दिया जाता था.
2014 में मेरी पहली किताब (राजेश खन्ना की जीवनी) की प्रस्तावना लेखक सलीम ख़ान ने लिखी.
उनसे मुलाकातों के दौरान मैंने ये सवाल पूछा कि जोड़ी में कौन क्या काम करता था तो उन्होंने कहा, “हमारी ट्यूनिंग इतनी ज़बरदस्त थी कि मेरा काम कहाँ से शुरू होता था और जावेद साब का काम कहाँ ख़त्म, बताना मुश्किल है. ये ऑटोमैटिकली होता चला जाता था. ये कॉम्प्लेक्स (जटिल) क्रिएटिव एक्टिविटी है. हम दोनों का माइंड बिल्कुल एक साथ चलता था.”
ये सीधा जवाब नहीं था. मैंने घुमाफिरा कर और टटोला मगर साफ़ जवाब नहीं मिला. फिर जावेद अख़्तर से भी सालों पहले इंटरव्यू में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया था, “हम दो लोग थे जो एक टीम की तरह काम करते थे. कौन क्या करता था, इसका जवाब देना मुनासिब नहीं.” यानी बात यहां भी साफ़ नहीं हुई.
सलीम-जावेद पर मशहूर किताब ‘रिटिन बाय सलीम-जावेद’ लिखने वाले लेखक दीप्तोकीर्ति चौधरी ने मुझे बताया, “लेखन का काम किस तरह बाँटा जाता था, इस बारे में जावेद साहब अक्सर कहते थे कि मैं नाउन्स (संज्ञाएं) लिखता था और सलीम साहब वर्ब्स (क्रियाएं).
ज़ाहिर है ये मज़ाकिया अंदाज़ में सवाल को टालने का तरीक़ा था. दोनों इस सवाल को सालों तक टालते रहे.”
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फिल्म इंडस्ट्री में अलग-अलग लोगों से इस बारे में गॉसिप भी सुनने को मिली, जिनमें प्रमुख थीं- “लिखते तो सब जावेद साब ही थे. सलीम साब का काम पीआर और स्क्रिप्ट नैरेशन तक था”, “सारी स्क्रिप्ट्स हॉलीवुड फिल्मों से मारी हुई थीं”, “शोले का आयडिया ‘मेरा गांव मेरा देश’ की नक़ल था” “दोनों ग़ज़ब के एरोगैंट थे और प्रोड्यूसर्स के सामने अजीबोगरीब शर्तें रखते थे” वगैरह वगैरह. मगर असली सवाल बरक़रार रहा? आखिरकार, सालों बाद इस बुनियादी सवाल का जवाब जावेद अख़्तर की तरफ से आया.
पिछले साल (मई 2023) लंदन की मशहूर ब्रिटिश लाइब्रेरी में लेखिका नसरीन मु्न्नी कबीर की लिखी किताब ‘जावेद अख़्तर-टॉकिंग लाइफ़’ के विमोचन में मुझे जावेद अख़्तर से लंबी बातचीत का मौका मिला. मैंने ये बुनियादी सवाल फिर पूछा कि आपकी और सलीम ख़ान की टीम कौन क्या करता था?
इस बार उन्होंने खुलकर जवाब दिया. “हमारी लिखी ज़्यादातर फ़िल्मों के स्टोरी आयडिया/कहानी तकरीबन हर बार सलीम साहब के ही थे. दीवार, त्रिशूल, शोले और डॉन, इन सब फ़िल्मों की स्टोरी लाइन सलीम साहब से आईं. कहानी में ट्विस्ट एंड टर्न और एंगरी यंग मैंन की पर्सनैलिटी भी उनका ही आयडिया था.”
नसरीन मु्न्नी कबीर की इसी नई किताब में भी जावेद अख़्तर साफ़-साफ़ सलीम खान को स्टोरी आयडिया का क्रेडिट देते हुए कहते हैं, “शोले में एक ठाकुर है, जिसके हाथ ख़तरनाक विलेन ने काट दिए हैं. वो ठाकुर अपने गांव की सुरक्षा के लिए दो नौजवानों को बुलाता है. ये पूरा आयडिया सलीम साहब का था.”
शोले का ज़िक्र करते हुए जावेद अख़्तर एक और अहम बात क़बूलते है, “शोले की पटकथा लिखने में रमेश सिप्पी भी हमारे साथ थे. हालांकि उन्हें इसका क्रेडिट नहीं दिया गया.”
ये तो हुई सलीम ख़ान के योगदान की बात. “फिर अगला स्टेप क्या था और आपका योगदान कहां से शुरू होता था?” मैंने जावेद अख़्तर से पूछा.
“स्क्रीनप्ले (पटकथा) से. हम दोनों मिलकर स्क्रीनप्ले लिखते थे. उनका स्टोरी आयडिया 10-15 मिनट का होता था और फिर हम साथ में एक-एक सीन लिखकर ढाई घंटे की पूरी फिल्म लिख देते थे.''
''स्क्रीनप्ले के दौरान भी नए किरदार, नई घटनाए और सीन जुड़ते जाते थे, जिसमें हम दोनों का ही कॉन्ट्रीब्यूशन था. इसका क्रेडिट किसी एक का नहीं है. लेकिन स्क्रीनप्ले के बाद डायलॉग लिखना मेरा डिपार्टमेंट था.”
इसका मतलब साफ़ है कि ‘दीवार’ के “मेरे पास मां है” या “मैं जब भी किसी दुश्मनी मोल लेता हूं तो सस्ते महंगे की परवाह नहीं करता” या फिर “डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है” ये सब मशहूर वन-लाइनर जावेद अख़्तर की कलम से निकले.
“जी हां. मगर उसी फिल्म डॉन की कमाल की स्टोरी और ट्विस्ट पूरी तरह सलीम साहब के थे.” जावेद अख़्तर ने कहा. कहानी-पटकथा-डायलॉग में दोनों के रोल की बात जावेद अख़्तर ने साफ़ कर दी.
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सलीम-जावेद की जोड़ी ने साथ में 24 फिल्में लिखीं, जिनमें 20 कामयाब रहीं. ये ज़बरदस्त रिकॉर्ड है. लेकिन कामयाबी के दौर में दोनों पर ये आरोप भी लगते थे कि उनकी फिल्मों की कहानी ओरिजिनल न होकर हॉलीवुड फिल्मों से प्रभावित थीं.
मैंने जब सलीम साहब से पूछा तो उन्होंने कहा था, “देखिए ओरिजिनल तो इस दुनिया में कुछ भी नहीं होता. सब कुछ कहीं ना कहीं हो चुका है. अगर कोई कहता है कि ये ओरिजिनल काम है तो समझिए झूठ बोल रहा है. हमने कभी नक़ल नहीं की. मैं बहुत पढ़ता था, तकरीबन हर रोज़ लाइब्रेरी जाता था. हर सब्जेक्ट की किताबें और नॉवेल. हमारे पास एक सीन के लिए कई कई आयडियाज़ होते थे.”
विदेशी फिल्मों के प्रभाव पर जावेद अख्तर ने कहा, “हम अपनी क्लासिक फ़िल्मों से ज़्यादा प्रभावित थे. मुग़ले आज़म, मदर इंदिया, गंगा जमुना. लेकिन मैं अमेरिकन फ़िल्मों और नॉवेल का भी ख़ूब शौक़ीन था. जेम्स हैडली चेज़ और रेमन चैंडलर के उपन्यास पसंद थे. वन लाइनर्स का इंपैक्ट समझता था. मैं इब्ने सफ़ी और प्रोग्रेसिव राइटर्स के बेहद प्रभावित था. ख़ासतौर पर किशन चंदर, मैं बहुत पढ़ता था."
"अगर कोई किताब अच्छी लगती तो मैं सलीम साहब को भी देता था.‘ज़ंजीर’ हिट हुई तो किसी ने लिखा कि हॉलीवुड की फिल्म ‘डर्टी हैरी’ की नक़ल है. देखिए, सिर्फ़ एक समानता थी दोनों फिल्मों में कि दोनों का हीरो एक ग़ुस्से वाला पुलिस अफ़सर था. ‘जंजीर’ की कहानी तो सलीम साहब ने लिखी थी और आपको बताऊं, हमने तो ‘डर्टी हैरी’ नहीं बनाई लेकिन ‘डर्टी हैरी’ हिंदी में बनी थी. उस फिल्म का नाम था ‘ख़ून ख़ून’ (1973) जो कि बुरी तरह पिटी थी.”
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हर कामयाबी की ढलान होती है. सलीम-जावेद की जोड़ी भी जून 1981 को टूट गई. इसके बाद दोनों ने अकेले फ़िल्में लिखीं. जावेद अख़्तर ने बेताब, दुनिया, मशाल, अर्जुन, डकैत, मेरी जंग और रूप की रानी चोरों का राजा जैसी फ़िल्में लिखीं. इनमें बेताब और अर्जुन कामयाब भी रहीं.
वहीं सलीम ख़ान ने नाम, क़ब्ज़ा, तू़फ़ान, अकेला और पत्थर के फूल जैसी फिल्में लिखीं.
इनमें सिर्फ़ ‘नाम' बड़ी हिट रही. जो ब्लॉकबस्टर कामयाबी सलीम-जावेद को जोड़ी के तौर पर मिली थी, उसे बतौर सोलो स्क्रीनराइटर दोनों ही दोहरा नहीं पाए.
उनकी जीवनी के लेखक दीप्तोकीर्ति चौधरी ने बताया कि जब सत्तर के दशक में वो सब फ़िल्में लिखीं तो उनमें बहुत नयापन था.
ज़ंजीर, दीवार, त्रिशूल या एंग्री यंग मैन जैसा हिन्दी सिनेमा में पहले कुछ नहीं हुआ था. “जब सलीम-जावेद अलग हुए तब भी वो इसी किरदार को लिखते रहे.
सलीम ख़ान की लिखी फ़िल्म नाम का संजय दत्त एंग्री यंग मैन ही तो है- 1980 का बेरोज़गार, फ्रस्ट्रेटेड नौजवान.
उनकी लिखी ‘अकेला’ में तो अमिताभ ही एंग्री यंग मैन थे जबकि उनकी उम्र तब यंग नहीं रही थी. जावेद अख़्तर की मेरी जंग, अर्जुन, डकैत…इन सभी फिल्मों का हीरो एंग्री यंग मैन ही था.
मगर एक दशक बाद इस हीरो और उसके ग़ुस्से में कोई नयापन नहीं रह गया था. इसलिए वैसी कामयाबी नहीं मिली."
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सलीम-जावेद को क़रीब से जानने वाले बताते हैं कि एक और ख़ास बात थी जो जोड़ी टूटने के बाद चली गई थी. दोनों मिलकर एक दूसरे के आत्मविश्वास को बढ़ाते थे.
इससे जुड़ा एक क़िस्सा बताते हुए लेखक दीप्तोकीर्ति चौधरी कहते हैं, "स्क्रीनलेखन के डॉन थे वो. सोचिए जब ज़ंजीर रिलीज़ हुई थी तो उसके पोस्टर में डायरेक्टर- प्रोड्यूसर का नाम था, लेकिन राइटर का नहीं.
प्रकाश मेहरा ने उनसे कहा था पोस्टर पर राइटर्स के नाम? ऐसा होता है कभी? “सलीम-जावेद निडर थे. उन्होंने एक आदमी को पैसे दिए और कहा कि रात भर में पूरे शहर में लगे पोस्टरों पर लिख दो-रिटेन बाय सलीम-जावेद. ऐसा पहले किसी ने नहीं किया था. ये कमाल की घटना है और मुझे लगता है कि इस काम के लिए दोनों ने ही एक दूसरे को हौसला दिया होगा. जोड़ी टूटने के बाद ये वाला हौसला जाता रहा.”
और फिर, ’ रिटेन बाय सलीम-जावेद’ का क्रेडिट आख़िरी बार लौटा था फ़िल्म ‘मिस्टर इंडिया’ में. ये फिल्म जोड़ी टूटने के छह साल बाद 1987 में रिलीज़ हुई थी.
लेकिन सलीम-जावेद के नाम का जादू फिर चला और फ़िल्म ब्लॉकबस्टर रही.
हालांकि ‘जावेद अख़्तर-टॉकिंग लाइफ़’ पुस्तक में जावेद अख़्तर कहते हैं, “मैंने मिस्टर इंडिया का पूरा स्क्रीनप्ले ख़ुद लिखा और उसके बाद डायलॉग. मैंने निर्माता बोनी कपूर से कहा कि इसके क्रेडिट में सलीम-जावेद नाम दिया जाए क्योंकि इस आइडिया का जन्म ‘सलीम-जावेद के दौर’ में हुआ था.”
वो दौर फिर नहीं आया मगर उसकी धमक हिंदी सिनेमा में आज तक सुनाई देती है. वर्षों पहले सलीम ख़ान ने गुरुदत्त की फ़िल्में लिखने वाले मशहूर फिल्म लेखक अबरार अल्वी से कहा था, “देखिएगा एक दिन राइटर फ़िल्म के हीरो से ज्यादा फीस लेंगे.”
अबरार अल्वी ने आंखे फैलाकर हैरत से जवाब दिया था, “कुछ भी कहते हो. ऐसा कभी नहीं होगा.”
ऐसा ही तो किया सलीम-जावेद ने.कई साल बाद फिल्म ‘दोस्ताना’ के लिए उन्हें सुपरस्टार अमिताभ बच्चन से पचास हज़ार रुपए ज्यादा दिए गए थे.
तभी तो आज जो हालात फ़िल्म लेखकों के हैं उसे देखकर महसूस होता है कि सलीम-जावेद ने जो किया उसे फिर से दोहराना शायद ‘मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है'.
(लेखक गुरुदत्त, राजेश खन्ना, संजय दत्त और रेखा के जीवन पर किताब लिख चुके हैं.)
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