वासुदेव गायतोंडे: पैसे और प्रसिद्धि से दूर रहने वाला वो कलाकार जिनकी पेंटिंग्स करोड़ों में बिकती रहीं
कुछ कलाकार अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन जाते हैं. उनकी कला उनके गुजरने के बाद भी लोगों के लिए प्रेरक बनी रहती है.
वासुदेव गायतोंडे ऐसी ही एक असाधारण प्रतिभा के चित्रकार थे. उन्हें भारत के सर्वश्रेष्ठ चित्रकारों में शामिल किया जाता है.
उनके चित्रों में प्रकाश और छाया का खेल दिखता है. उनकी रचनाएं, उनमें रंगों का इस्तेमाल और यहां तक कि कैनवस पर रंग लगाने और हटाने का तरीका, ये सभी आज भी लोगों के लिए अचरज का विषय हैं.
अमूर्त शैली की उनकी पेंटिंग देखने वाले को मंत्रमुग्ध कर देती है.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिएगायतोंडे की जन्मशती 2 नवंबर 2024 को है. उनकी मृत्यु को भी लगभग आधी शताब्दी बीत चुकी है. लेकिन उनके बारे में लोगों की दिलचस्पी बढ़ती दिखी है.
गायतोंडे ने खुद अपने जीवन में कभी भी बहुत सारा पैसा या प्रसिद्धि नहीं चाही. लेकिन अब जब भी उनकी पेंटिंग्स नीलामी के लिए आती हैं तो बिक्री के नए रिकॉर्ड बना देती हैं.
गायतोंडे की एक पेंटिंग 2022 में 42 करोड़ रुपये (करीब पांच लाख अमेरिकी डॉलर) में बिकी थी .
यह उस समय किसी भी भारतीय कलाकार की कलाकृति के लिए सबसे अधिक बोली थी.
यह पहली बार था कि ऑयल पेंटिंग बिक्री के लिए आई. इसका नीला रंग दर्शकों को समुद्र या आकाश के विशाल विस्तार की याद दिलाता है.
अगले ही साल यानी 2023 में गायतोंडे की एक और तस्वीर 47.5 करोड़ रुपये में बिकी.
इस वर्टिकल पेंटिंग में पीले रंग के रंग कैनवस पर फैले हुए हैं और आकृतियाँ पेस्टल रंगों में हैं. वे किसी समझ से बाहर की भाषा में लिखे हुए गीत मालूम होते हैं.
गायतोंडे की पेंटिंग्स इतनी ख़ास क्यों हैं? इसका जवाब उनकी कला और उनके व्यक्तित्व में तलाशा जा सकता है.
गायतोंडे ने कोई बहुत पेंटिंग नहीं बनाई हैं. लगभग 50 साल के अपने करियर में उन्होंने लगभग 400 पेंटिंग्स बनाई होंगी. ज़ाहिर है कि वे बहुत दुर्लभ हैं, इसलिए आज उनकी क़ीमत आसमान में है.
दूसरे, कई लोगों को गायतोंडे का व्यक्तित्व काफ़ी हद तक रहस्यमयी लगता है.
वह अपने जीवन के अधिकांश समय तक वैरागी बने रहे और जापान के ज़ेन बौद्ध दर्शन से प्रभावित थे.
उनकी पेंटिंग्स उसी दर्शन के शांत और ध्यानमग्न रवैये को भी दर्शाती हैं.
गायतोंडे ने 1991 में 'इलस्ट्रेटेड वीकली' के लिए प्रीतीश नंदी को एक इंटरव्यू दिया था.
इस इंटरव्यू में उन्होंने अपनी पेंटिंग पर बात करते हुए कहा था, ''हर चीज़ मौन से शुरू होती है, शून्य से. कैनवस की शांति, पेंटिंग की शांति. चित्रकार इस सारी शांति को अवशोषित करता है और इसके बाद ब्रश से पेंटिंग करना शुरू कर देता है. पूरा शरीर रंग, ब्रश और कैनवस के साथ तालमेल में होकर शांति में सर्जन करता है."
जब दुनिया भर के कलाकार तकनीकी तौर पर पश्चिमी दुनिया का अनुसरण कर रहे थे, तब गायतोंडे का भरोसा एशियाई दर्शन में बना हुआ था.
गायतोंडे वास्तव में चित्रकारों की उस पीढ़ी में अग्रणी रहे जिन्होंने भारत में आधुनिक कला और अमूर्तवाद की नींव रखी.
बीसवीं सदी के मध्य में वे उन चित्रकारों में शामिल रहे जिन्होंने भारतीय कला को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया और इसे अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई.
वासुदेव संतु गायतोंडे का जन्म 2 नवंबर 1924 को नागपुर में हुआ था. उनके पिता संतु गायतोंडे तब नागपुर में काम करते थे.
गायतोंडे परिवार मूल रूप से गोवा का रहने वाला था लेकिन बाद में मुंबई में बस गया. वह मुंबई के गिरगांव में एक चाल में ढाई कमरे के छोटे से घर में रहते थे.
उनकी बहन किशोरी दास ने 'गायतोंडे' किताब में लिखा है कि वासुदेव को बचपन से ही पेंटिंग और रंगों का शौक था.
स्वाभाविक रूप से रंगों के शौकीन लड़के ने चित्रकार बनने का फ़ैसला किया और अपनी स्कूली शिक्षा के बाद मुंबई के 'जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स' में दाखिला लेने का मन बनाया.
'जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स' तब मुंबई में कला का घर था. लेकिन उस दौर में पेंटिंग को अच्छा करियर नहीं माना जाता था. इसलिए पिता ने फ़ैसले का विरोध किया.
किशोरी दास लिखती हैं, "लेकिन वासुदेव अपने फ़ैसले पर अड़े रहे और उन्होंने उसके बाद अपने माता-पिता से एक पैसा भी नहीं लिया."
गायतोंडे ने 1948 में जेजे में अपनी शिक्षा पूरी की और कुछ समय तक वहां काम भी किया. यह वह समय था जब भारत को आज़ादी मिली ही थी.
इसके बाद वासुदेव गायतोंडे 'प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप' से जुड़ गए. इस ग्रुप में गायतोंडे के साथ-साथ एमएफ़ हुसैन, एस एच रजा, एफ एन सूजा और ऑस्कर जीतने वाली भानु अथैया जैसे कलाकार शामिल थे.
प्रगतिशील कलाकारों के इसी समूह ने भारत में आधुनिक कला की नींव रखी.
आधुनिकतावाद 20वीं शताब्दी के आसपास साहित्य, संगीत और कला में एक आंदोलन है, जिसमें लेखकों और कलाकारों ने पुरानी स्थापित अवधारणाओं को चुनौती देकर नए विचारों को प्रोत्साहित किया.
जब हम भारतीय चित्रकला की बात करते हैं तो अजंता के भित्ति चित्र, पहाड़ी और मुगल लघु चित्र, बंगाल के कलाकार या राजा रवि वर्मा की पेंटिंग सामने आती है.
ये सभी यथार्थवादी शैली की पेंटिंग्स थीं, यानी चित्रकारों का ज़ोर जो जैसा दिखता है उसे वैसा ही पकड़ने और कला के तौर पर चित्रित करना था.
सतीश नाइक कहते हैं, ''गायतोंडे ने भी शुरुआत में इसी तरह काम किया, लेकिन जल्द ही उन्होंने अलग रास्ता चुन लिया.''
नाइक एक चित्रकार, लेखक और 'गायतोंडे' पुस्तक के प्रकाशक हैं.
नाइक के मुताबिक गायतोंडे पहले भारतीय चित्रकार थे जिन्होंने निराकार पेंटिंग का रास्ता चुना.
नाइक कहते हैं, ''गायतोंडे को इस लिहाज से विद्रोही कह सकते हैं. उन्होंने यह कहा कि अगर मुझे कोई चित्र बनाना है तो मैं अपने तरीक़े से बनाऊंगा. किसी और के दिखाए और बनाए चित्रों जैसा नहीं बनाऊंगा."
मुंबई में नई सोच वाले ऐसे कलाकारों का एक और केंद्र था- भूलाबाई देसाई इंस्टीट्यूट.
हुसैन, सितार वादक रविशंकर, थिएटर निर्देशक इब्राहिम अल्काज़ी जैसे कलाकार वहां काम करते थे.
इस संस्था में स्टूडियो की संरचना ऐसी थी कि कोई भी किसी भी समय किसी के भी स्टूडियो में जा सकता था, जिसके माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान किया जा सकता था. गायतोंडे अक्सर ही यहां आते थे.
वह कई घंटों तक वहां लॉन में एक बेंच पर बैठे रहते और ध्यान करते. वह अक्सर समुद्र, ज्वार भाटा के आकार, चमचमाते पानी और साफ़ आकाश को देखते रहते थे. यह बाद में उनकी कुछ पेंटिंग्स में प्रतिबिंबित हुआ.
गायतोंडे का रुझान अध्यात्म की ओर था. वह निसर्गदत्त महाराज, जे कृष्णमूर्ति, रमण महर्षि के विचारों से प्रभावित थे. उन्होंने बहुत कुछ पढ़ा और पढ़ने के दौरान ही 1959 में उनका जापान के ज़ेन दर्शन से परिचय हुआ.
इसके बाद गायतोंडे ने सही मायनों में एक अलग सफ़र की शुरुआत की. उन्होंने अमूर्त कला की ओर रुख किया था.
1963 में, गायतोंडे ने म्यूज़ियम ऑफ़ मॉडर्न आर्ट, न्यूयॉर्क द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब में ज़ेन दर्शन के बारे में लिखा.
वे कहते हैं, "ज़ेन ने मुझे प्रकृति को समझने में मदद की. मेरी पेंटिंग्स प्रकृति के प्रतिबिंब के अलावा और कुछ नहीं हैं. मैं जो कहना चाहता हूं वह कम शब्दों में कहना चाहता हूं. मैं स्पष्ट और सरल होने पर ध्यान केंद्रित करता हूं."
गायतोंडे के चित्रों की खासियत और उनकी प्रतिभा को सबसे पहले पहचानने वालों में अमेरिकी अमूर्त चित्रकार मॉरिस ग्रेव्स थे.
ग्रेव्स ने 1963 में भारत का दौरा किया और प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से मुलाकात की. दिल्ली में पुपुल जयकर ने उनसे मुंबई जाकर वासुदेव गायतोंडे की पेंटिंग देखने का आग्रह किया.
इसलिए वह मुंबई आए और गायतोंडे से मिले.
ग्रेव्स, गायतोंडे की पेंटिंग से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तुरंत न्यूयॉर्क में विलार्ड गैलरी के डैन और मिरियम जॉनसन को लिखा.
वह लिखते हैं, ''32 वर्षीय गायतोंडे, मेरे अब तक देखे सबसे अच्छे चित्रकारों में से एक हैं. उनके बारे में कोई ज़्यादा नहीं जानता, लेकिन वे उत्कृष्ट और शानदार काम करते हैं."
"यहां तक कि उनमें विश्व प्रसिद्ध चित्रकार मार्क रोथको जैसी प्रतिभा दिखती है. जल्दी ही वे दुनिया के प्रसिद्ध चित्रकारों में शामिल हो सकते हैं.''
ग्रेव्स ने लिखा, ''वह एक अमूर्त चित्रकार हैं और उनके चित्रों में अवर्णनीय सुंदरता और स्पष्टता है. उनकी तस्वीरें मन और प्रकाश की सबसे खूबसूरत तस्वीरें हैं."
गायतोंडे ने 1957 में टोक्यो (जापान) में युवा कलाकार प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार जीता. ग्रेव्स के लिखे पत्र के तुरंत बाद उन्हें अमेरिका के न्यूयॉर्क जाने का मौका मिला.
रॉकफेलर फ़ेलोशिप प्राप्त करने के बाद वह 1964-65 के दौरान कुछ समय के लिए न्यूयॉर्क में रहे.
उस दौरान उनकी मुलाकात कई कलाकारों से हुई. पश्चिमी कला की तकनीकों को एशियाई विचारों के साथ मिलाने से उनकी चित्रकला और अधिक समृद्ध हो गई.
उन्होंने ब्रश के बजाय रोलर का उपयोग किया, जिससे पेंट पूरे कैनवस पर फैल गया. कभी-कभी रंगों को एक के ऊपर एक परत लगा दिया जाता था और कुछ हिस्सों को चाकू से हटा दिया जाता था.
कैनवस को जीवंत बनाने के लिए ऐसी बहुत तरकीबों का वे इस्तेमाल करते रहे.
अमेरिकी कला इतिहासकार बेथ सिट्रोन कहते हैं, ''गायतोंडे की पेंटिंग की तुलना अक्सर पश्चिमी चित्रकारों से की जाती है. लेकिन गायतोंडे के न्यूयॉर्क जाने से पहले ही उनकी पेंटिंग आकार ले रही थीं."
1971 में भारत सरकार ने गायतोंडे को पद्मश्री से सम्मानित किया. यही वह समय था यानी 1970 के आसपास जब वह दिल्ली में बस गए थे.
गायतोंडे पहले से ही एक वैरागी जैसे थे और दिल्ली आने के बाद वह और भी अधिक एकांतवासी हो गए. आस-पास के बहुत कम लोगों को छोड़कर वे दूसरों के लिए दरवाज़ा तक नहीं खोलते थे.
उनके शिष्य और चित्रकार लक्ष्मण श्रेष्ठ ने बताया एक किस्सा 'गायतोंडे' पुस्तक में शामिल है.
उनका कहना था, “एमएफ़ हुसैन जब भी दिल्ली आते थे, गायतोंडे से मिलने जाते थे, लेकिन अगर गायतोंडे किसी से मिलना नहीं चाहते थे तो वे दरवाज़ा नहीं खोलते थे. तब हुसैन उनके दरवाज़े पर कुछ बनाते थे. यह हुसैन का कहने का तरीक़ा था कि 'मैं आया था और चला गया.' दोनों के बीच ऐसी दोस्ती थी."
Getty Images गायतोंडे ज़िंदगी भर एकांतप्रिय बने रहे. दूसरी ओर उनकी पेटिंग्स करोड़ों में बिकती रहीं.गायतोंडे साल में पांच-सात चित्र बनाते थे, लेकिन 1984 में एक दुर्घटना में उन्हें गंभीर चोटें आईं. इसके बाद कुछ दिनों के लिए वे पेंटिंग करने में असमर्थ थे.
लगभग इसी समय पंडोल आर्ट गैलरी की ददिबा पंडोल ने गायतोंडे से किसी दिन पूछा कि आप इन दिनों पेंटिंग क्यों नहीं कर रहे हैं?.
गायतोंडे ने इसका दिलचस्प जवाब दिया, ''मैं अब भी पेंटिंग करता हूं लेकिन अपने दिमाग़ में. इन दिनों मेरे पास ज़्यादा ऊर्जा नहीं बची है और मुझे इसे संभाल कर रखना है. यही वजह है कि मैं इसे कैनवस पर रंग डालने में बर्बाद नहीं करना चाहता."
2001 में जब गायतोंडे की मृत्यु हुई, तो कला जगत के लोगों को छोड़कर किसी का ज़्यादा ध्यान नहीं गया. लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, उनकी पेंटिंग्स का महत्व और अधिक स्पष्ट हो गया.
न्यूयॉर्क के आधुनिक कला संग्रहालय की एसोसिएट क्यूरेटर कारा मेन्ज़ के मुताबिक गायतोंडे की पेंटिंग बताती है कि, "शांति कैसी दिख सकती है. नीरव शांति की तस्वीरों में चमक कैसी हो सकती है. जो इस शांति से, शून्य से आती है. ये चमक ठोस निशानों के ज़रिए कैनवस पर स्पष्टता से दिखती है."
लेकिन खुद गायतोंडे के लिए पेंटिंग खुद को अनुभव करने और अभिव्यक्त करने का एक माध्यम मात्र थी.
वह अक्सर कहा करते थे, ''मैं रंगों को गिरा कर देखता रहता हूं. यही मेरी कलाकृति है.”
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