भारत की ज़हरीली हवा को फ़िल्मों में जगह क्यों नहीं मिलती?
साल 2016 की बात है. एक फ़िल्म आई, जिसका नाम था पिंक. यह फ़िल्म सुर्ख़ियों में भी रही और बॉक्स ऑफ़िस पर अच्छी कमाई भी की.
इस फ़िल्म में एक दृश्य है, जिसमें अमिताभ बच्चन का किरदार सर्दियों की सुबह अपने घर से मास्क पहने दिल्ली की धुंध भरी सड़क पर निकलता है.
मास्क और दिल्ली की धुंध को तो कई फ़िल्मों में दिखाया गया है, लेकिन फ़िल्म की पटकथा से इसका कोई ख़ास मतलब नहीं होता है.
'पिंक' उन कुछ मुख्यधारा की चुनिंदा फ़िल्मों में शामिल है, जिसमें वायु प्रदूषण को दिखाया गया है. भारत के कई हिस्सों में लाखों की आबादी साल दर साल इस प्रदूषण का सामना करती है, जो कि उनके स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक है.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिएभारत की राजधानी दिल्ली और उत्तर भारत के दूसरे इलाक़ों में ज़हरीली हवा अक्सर सुर्ख़ियों में रहती है.
ये मुद्दा लोगों की बातचीत के साथ-साथ राजनीतिक गलियारों में भी सुनाई देता है और इस पर क़ानूनी चर्चा भी होती है. बॉलीवुड में कई बड़े हादसे और प्राकृतिक हादसों पर फ़िल्में बनी हैं.
जैसे कि 2013 में उत्तराखंड में आई आपदा पर, 2018 में केरल और 2005 में मुंबई शहर में आई विनाशकारी बाढ़ पर फ़िल्में बनी हैं, लेकिन मनोरंजन उद्योग से प्रदूषण का विषय गायब है.
प्रदूषण पर लिखी गई एक किताब, 'द ग्रेट स्मॉग ऑफ इंडिया' के लेखक सिद्धार्थ सिंह कहते हैं कि यह हमारी 'बहुत बड़ी विफलता' है कि वायु प्रदूषण को भारत के साहित्य और फ़िल्मों में कोई जगह नहीं दी गई है.
उन्होंने बताया कि भारत में प्रदूषण पर काम अक्सर एकेडमिया या फिर इस विषय के विशेषज्ञों का ही रहता है.
उन्होंने कहा, "जब आप पीएम2.5 या नाइट्रोजन ऑक्साइड या सल्फर डाइऑक्साइड (प्रदूषक तत्व) बोलते हैं तो इसका आम लोगों के लिए क्या मतलब होता है? ये शब्द उनके लिए कोई मायने नहीं रखता है."
ये भी पढ़ेंजलवायु परिवर्तन के बारे में विस्तार से लिखने वाले लेखक अमिताव घोष ने अपनी 2016 की किताब, 'द ग्रेट डिरेंजमेंट' में लिखा है कि आज की साहित्यिक कहानियों में जलवायु से संबंधित कहानियों को जगह नहीं मिलती.
उन्होंने 2022 के एक इंटरव्यू में कहा, "लोग जलवायु परिवर्तन को लेकर बहुत ज़्यादा गंभीर नहीं हैं."
उन्होंने भीषण गर्मी के दौरान भारत में रहने के अपने अनुभव को बताते हुए कहा, "मुझे जो बात सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली लगी, वह यह थी कि सब कुछ सामान्य जैसा लग रहा था और यही सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली बात थी. ऐसा लगता है कि हमने पहले ही इन बदलावों के साथ जीना सीख लिया है."
घोष ने जलवायु परिवर्तन को एक "धीमी हिंसा" बताया, जिसके बारे में लिखना मुश्किल है.
प्रदूषण के बारे में यह कहना ठीक है, क्योंकि इसका इंसान की सेहत पर धीमा असर पड़ता है. इसलिए इसे फ़िल्मों में दिखाना मुश्किल होता है.
ये भी पढ़ेंहालांकि, शौनक सेन की 'ऑल दैट ब्रीद्स' जैसी डॉक्यूमेंट्री में इस मुद्दे को दिखाया गया है. ये डॉक्यूमेंट्री 2022 में ऑस्कर के लिए नामित हुई थी.
इस डॉक्यूमेंट्री में सेन ने जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और दिल्ली में लोगों और पशु-पक्षियों के बीच के रिश्ते को दो भाइयों की कहानी के माध्यम से दिखाया है.
ये दोनों भाई दिल्ली के धुंध भरे आसमान से नीचे गिरकर घायल होने वाले काली चीलों का इलाज करते हैं.
सेन कहते हैं कि उनकी दिलचस्पी इस बात को जानने में ज़्यादा थी कि 'एंथ्रोपोसीन जैसी बड़ी चीज़ों' का या जलवायु परिवर्तन का हमारे रोज़मर्रा के स्वभाव पर क्या असर होता है.
एंथ्रोपोसीन शब्द का इस्तेमाल इंसानों का धरती, इसके ईको सिस्टम और दूसरी प्रजातियों पर डाले जा रहे असर के बारे में बताने के लिए किया जाता है.
इस फ़िल्म के एक दृश्य में दोनों भाई बहस करते हुए दिखाई देते हैं. फिर उनमें से एक भाई आसमान की तरफ इशारा करते हुए कहता है, "ये सब जो हमारे बीच में हो रहा है, ये इस सबकी ग़लती है".
सेन कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हमारी ज़िंदगी के हर पहलू पर पड़ता है. सिनेमा और साहित्य में भी ये काम उसी तरह दिखना चाहिए."
उनका कहना है कि पर्यावरण संबंधी फ़िल्में, जो दर्शकों को इस बारे में जानकारी देती है या उन्हें ज़िम्मेदार ठहराती है, वो दर्शकों को पसंद नहीं आती.
उन्होंने कहा, "मेरे लिए सबसे अच्छी फ़िल्म वह होती है, जो ज़रूरी मुद्दों को इस तरह से बताए कि दर्शकों को मालूम भी न पड़े कि उन्हें कुछ समझाया जा रहा है और वह बात को समझ भी जाए."
ये भी पढ़ेंफ़िल्म निर्माता नील माधब पांडा ने जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से संबंधित 70 से ज़्यादा फ़िल्मों में काम किया है. उनका मानना है कि कला इस दिशा में बदलाव ला सकती है.
पांडा ने 2005 में अपनी डॉक्यूमेंट्री 'क्लाइमेट्स फर्स्ट ऑर्फन' की मदद से लोगों को जलवायु परिवर्तन पर कहानियां बताना शुरू किया था.
उन्होंने अपने संदेश को ज़्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए मेनस्ट्रीम सिनेमा की मदद ली.
उनका जन्म और पालन-पोषण ओडिशा के कालाहांडी में हुआ. ये इलाक़ा बाढ़ और सूखे का सामना करता था. साल 1995 में वह दिल्ली आ गए.
उन्होंने कहा, "मेरे लिए यह हैरान करने वाली बात है कि मैं एक ऐसे इलाक़े में रह रहा था, जहां हम चार मौसम देखते थे और सीधे नदी से पानी पीते थे."
"हमारे लिए हवा, पानी, आग और सब चीज़ें वहां मुफ्त थीं. लेकिन दिल्ली में आप सब चीज़ें ख़रीदते हैं. मैं पानी और हवा ख़रीदता हूं. हर कमरे में एक एयर फिल्टर देखने को मिल जाएगा."
2019 में पांडा ने एक एक शॉर्ट फ़िल्म बनाई.
उनकी यह फ़िल्म एक ऐसे जोड़े के बारे में थी जो तलाक ले रहे थे. उनके तलाक का कारण यह था कि वे इस बात पर सहमत नहीं हो पा रहे थे कि उन्हें दिल्ली में रहना है या नहीं.
उन्होंने इस फ़िल्म की मदद से दिल्ली में प्रदूषण की समस्या के बारे में बताया.
पांडा कहते हैं, "आप ऐसी कोई भी चीज़ नहीं बना सकते हैं, जो लोगों को मनोरंजन न दे."
फ़िल्म निर्माताओं के लिए गंभीर मुद्दों पर कहानियां बनाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता था. उन्हें लोगों के लिए कहानियों को प्रासंगिक बनाने का तरीक़ा ढूंढना होगा.
सिद्धार्थ सिंह ने 2018 में एक किताब लिखी, जो भारत के वायु प्रदूषण पर केंद्रित थी. उनका कहना है कि उन्हें किताब लिखते समय आंकड़ों के पीछे के लोगों को खोजने में काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा.
"हम हमेशा इस तरह की ख़बरें पढ़ते हैं कि हर साल प्रदूषण के कारण दस लाख या बीस लाख लोग मर रहे हैं. लेकिन, ये लोग कहां हैं? उनकी कहानियां कहां हैं."
जबकि, पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को अक्सर भारत के साहित्य में जगह मिली है, लेकिन अब कुछ अंग्रेज़ी लेखकों ने भी इस मुद्दे पर ध्यान देना शुरू कर दिया है.
नीलांजना एस रॉय के क्राइम नॉवेल 'ब्लैक रीवर' में दिल्ली के भलस्वा लैंडफिल साइट की बात की गई है.
गिगी गांगुली की 'बायोपेक्यूलियर' और जेनिस पैरियाट की 'एवरीथिंग द लाइट टच' में लेखकों ने पर्यावरण के साथ इंसानी रिश्तों के बारे में बात की है.
लेकिन, अब भी एक लंबा रास्ता तय करना बाकी है.
सिद्धार्थ सिंह का कहना है कि पर्यावरण से संबंधित कहानियों की कमी की वजह ये भी हो सकती है कि इन्हें लिखने वाले लोगों ने कभी प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन की परेशानियों का ख़ुद सामना नहीं किया.
"वे लोग उन लोगों की तरह नहीं हैं, जो यमुना नदी (प्रदूषित) के किनारे रहते हैं, जो इसमें कविता देखते हैं या इसके किनारों पर कहानियों के बारे में लिखते हैं."
उनका कहना है कि इन दिनों सोशल मीडिया पर मीम्स और फोटो ही वायु प्रदूषण की गंभीरता को बताने में अहम भूमिका निभा रहे हैं.
"कुछ दिनों पहले एक मीम काफी लोकप्रिय हुआ था, जिसमें कुछ इस तरह से लिखा था, 'शेख हसीना (बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री जो अब दिल्ली में हैं) को सुबह की सैर करते देखा गया'. लेकिन साथ में दी गई तस्वीर पूरी तरह से धुंधली थी क्योंकि मज़ाक यह था कि वायु प्रदूषण के कारण उन्हें देखा नहीं जा सकता."
लेखक सिद्धार्थ सिंह को भरोसा है कि ऐसी रचनात्मक चीज़ों को और गति मिलेगी, जिससे उन लोगों को कदम उठाने पर मजबूर होना होगा, जो वास्तव में प्रदूषण को ठीक करने के लिए कुछ कर सकते हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित
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