सेंसरशिप, 'कश्मीर फाइल्स' और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर क्या बोलीं शबाना आज़मी?

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Getty Images शबाना आज़मी

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, बेगम अख़्तर, फिराक़ गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी... ये कुछ नामचीन साहित्यकार- कलाकार हैं जिनके बीच शबाना आज़मी ने अपना बचपन बिताया.

शबाना आज़मी के पिता मशहूर शायर-लेखक कैफ़ी आज़मी और माँ अभिनेत्री शौकत कैफ़ी के घर इन सभी का आकर ठहरना आम था.

उन दिनों के दिलचस्प क़िस्से, वामपंथी माहौल में एक 'कम्यून' में बीता बचपन, सिनेमा में मज़बूत किरदार, फ़िल्मों का चुनाव, फ़िल्मों में अपनी आवाज़ में गाना, सेंसरशिप, राज्यसभा में अलग-अलग पार्टियों के सदस्यों का आपसी रिश्ता, धार्मिक कट्टरता- इन सब पहलूओं पर बीबीसी से विशेष बातचीत में शबाना आज़मी ने बेबाकी से अपनी बात रखी.

BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए BBC वह नज़्म जिसने शौकत को कैफ़ी के क़रीब किया

नौ साल की उम्र तक शबाना आज़मी, उनके भाई बाबा आज़मी और उनके माता-पिता मुंबई के जिस घर में रहते थे, वह कम्युनिस्ट पार्टी का एक 'कम्यून' था.

कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे.

'रेड फ़्लैग हॉल' नाम के इस 'कम्यून' में कुल आठ परिवार रहते थे. करीब 200 वर्ग फ़ुट के कमरे थे. सभी परिवारों के बीच एक शौचालय और एक ही बाथरूम था.

शबाना उन दिनों को याद करती हैं, "वहाँ रहने वालों की अपनी ही दुनिया थी. लड़के-लड़की में फ़र्क़ नहीं था. मम्मी पृथ्वी थिएटर के साथ टूर पर रहती थीं तो पापा मेरी चोटियाँ बनाते. मुझे खिलाते-पिलाते थे."

अपने पिता कैफ़ी आज़मी की नज़्म 'औरत' का ज़िक्र करते हुए वह कहती हैं, "इस नज़्म की वजह से ही मेरी माँ पूरी तरह उनकी आशिक बन गईं."

इस नज़्म की पहली लाइन है, "उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे."

जब फ़ैज़ से हुई मुलाकात

जब शबाना ख़ुद कलाकार बन गईं और देश-विदेश की यात्राएँ करने लगीं, तब उनकी मुलाक़ात मॉस्को में मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से हुई.

फ़ैज़ उनके सबसे पसंदीदा शायर हैं. इसलिए उनके लिए ये मुलाक़ात बेहद ख़ास थी.

वह बताती हैं कि फ़ैज़ साहब ने उन्हें बुलाकर अपनी एक नज़्म पढ़ने के लिए कहा. शबाना को उर्दू पढ़नी नहीं आती थी. वे झेंप गईं.

शबाना ने इसका ज़िक्र करते हुए बताया, "फ़ैज़ साहब बोले, बड़े नामाक़ूल हैं तुम्हारे माँ-बाप... तो मैंने हड़बड़ाकर कहा कि मैं उर्दू ज़बान समझती हूँ. बोल सकती हूँ. बस पढ़ नहीं सकती... और हाँ, आपके शेर मुझे बेहद पसंद हैं."

शबाना ने फ़ौरन एक शेर पढ़ा, "देख तो दिल कि जाँ से उठता है, ये धुआँ सा कहाँ से उठता है."

लेकिन ये शेर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का नहीं था.

उन्होंने तुरंत टोका, "ये तो मीर का कलाम है!" मीर यानी मीर तक़ी मीर.

शबाना ने झेंपते हुए उनसे कहा, "सॉरी...सॉरी... सॉरी... मतलब मैं कह रही हूँ'' और फिर एक शेर पढ़ा, ''बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी..." अब फ़ैज़ साहब ने कहा, "देखिए मीर तक तो बहुत अच्छी बात है लेकिन हम बहादुर शाह ज़फ़र को शायर नहीं मानते!"

हुआ यों कि शबाना ने दोबारा जो शेर सुनाया, वह फ़ैज़ का नहीं बहादुर शाह ज़फ़र का था.

शबाना आज़मी ने बताया कि तब से वे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्मों का संकलन हमेशा अपने साथ रखती हैं.

Getty Images शबाना आज़मी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बड़ी प्रशंसक हैं अर्थ से रॉकी रानी तक: वह दूसरी स्त्री

साल 1975 में फ़िल्म 'अंकुर' के बाद 1983 में फ़िल्म 'अर्थ' के लिए शबाना आज़मी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला.

लेकिन फ़िल्म 'अर्थ' अपने मौजूदा रूप में शायद रिलीज़ ही न होती.

ये फ़िल्म एक शादीशुदा मर्द की एक दूसरी स्त्री के साथ मोहब्बत की कहानी है. फ़िल्म के आख़िर में वह मर्द इस रिश्ते के लिए अपनी पत्नी से माफ़ी माँगता है. वह माफ़ करने से मना कर देती है.

शबाना बताती हैं, "वितरकों ने कहा, फ़िल्म तो बहुत अच्छी है पर इसका अंत आपको बदलना पड़ेगा. इस अंत को हिंदुस्तानी दर्शक स्वीकार नहीं करेगा. लेकिन डायरेक्टर महेश भट्ट और मैंने कहा कि अंत तो यही रहेगा. इसी के लिए तो हमने ये फ़िल्म बनाई है."

फ़िल्म उसी तरह ही रिलीज़ हुई. आलोचकों और दर्शकों ने इसे ख़ूब पसंद भी किया. उस फ़िल्म में शबाना आज़मी ने पत्नी का किरदार निभाया था.

करीब 40 साल बाद फ़िल्म 'रॉकी और रानी की प्रेम कहानी' में एक बार फिर एक शादीशुदा मर्द की किसी और स्त्री से मोहब्बत की कहानी को दर्शाया गया.

इस फ़िल्म में शबाना ने उस दूसरी स्त्री का किरदार निभाया और एक बार फिर फ़िल्मफेयर अवॉर्ड जीता.

इस दौरान क्या भारतीय दर्शकों की सोच बदली है?

इस पर शबाना का कहना है, "ऐसा तो नहीं है कि हिंदुस्तान के सब लोग एक ही तरह सोचते हैं. कुछ लोगों को बुरा लगेगा. कुछ को बहुत पसंद आएगा. कुछ को हैरत होगी. कुछ लोग सोचेंगे ये क्या हुआ? मुझे लगता है फ़िल्म की यही शक्ति है कि वह बहस शुरू करती है."

Getty Images शबाना आज़मी ने श्याम बेनेगल की फ़िल्म 'अंकुर' से करियर की शुरुआत की थी शबाना ने गाने भी गाए हैं

अस्सी के दशक में शबाना आज़मी ने निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली की फ़िल्म 'अंजुमन' में अभिनय किया. उन्होंने शबाना को इसमें गीत गाने के लिए भी राज़ी कर लिया.

शबाना ने 'अंजुमन' फ़िल्म में तीन गीत अकेले गाए और एक गीत, "गुलाब जिस्म का यूँ ही नहीं खिला होगा", भूपिंदर सिंह के साथ गाया.

ये फ़िल्म सिनेमा घरों में रिलीज़ नहीं हुई. हालाँकि इसके गाने सोशल मीडिया पर अब भी मौजूद हैं.

शबाना इन्हें गुनगुनाने को राज़ी नहीं हुईं और बताया, "मैंने कभी संगीत सीखा नहीं है. गाना गाते हुए मुझे बेहद डर लगता है. मुझे लगता है कि किसी तरह से तीन मिनट ख़त्म हो जाए."

वैसे, शबाना आज़मी ने साल 2017 में अपर्णा सेन की अंग्रेज़ी भाषा में बनी फिल्म 'सोनाटा' में भी दो गीत गाए हैं.

ये दोनों गीत बांग्ला में हैं. इनकी धुन गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की है.

शबाना आज़मी ने साफ़ कहा कि उनका गायकी की ओर रुझान नहीं है. साथ ही बताया कि उन्होंने श्याम बेनेगल की कुछ फिल्मों में भी छोटे-छोटे टुकड़े गाए हैं.

Getty Images शबाना आज़मी अपने पति जावेद अख़्तर के साथ (2015)
  • शबाना जब राज्यसभा पहुँचीं

    शबाना आज़मी का राजनीति में सीधा दख़ल साल 1997 में हुआ. 46 साल की उम्र में शबाना आज़मी राज्यसभा के लिए नामित होने वाली सबसे युवा महिला सांसद बनीं.

    वे किसी पार्टी की तरफ से नामित नहीं हुई थीं. इसी वजह से सभी पार्टियों के नेताओं के साथ अच्छे रिश्ते बनाने में कामयाब रहीं. उन्होंने संसद में अलग-अलग विचार वाली पार्टियों के नेताओं के बीच ख़ुशनुमा रिश्ते भी देखे.

    शबाना ने संसद के अपने अनुभव के बारे में बताया, "विपक्ष और सत्ताधारी पार्टी के कुछ लोगों को संसद में देखकर ऐसा लगता था कि बस वे एक-दूसरे का मर्डर ही कर देंगे. हालाँकि, बाहर आकर वे आराम से एक-दूसरे से बात करते थे. कोई कहता कि, 'चल, मेरे को ढोकला खिला तो कोई कहता 'चल, मेरे को चाय पिलाओ.' और साथ बैठ कर वे लोग हँसी-मज़ाक़ करते थे. उनमें इंसानियत थी."

    धार्मिक कट्टरता और पिता का मंत्र

    साल 1992-93 के दौर में हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद शबाना आज़मी के पिता कैफ़ी आज़मी ने उन्हें एक बात कही थी. इसे उन्होंने अपना गुरु मंत्र बनाया.

    कैफ़ी ने क्या मंत्र दिया, शबाना ने बताया, "जब आप तब्दीली के लिए कोशिश करें तो मुमकिन है कि तब्दीली आपकी ज़िंदगी में न आए. हालाँकि, अगर आप पूरी मेहनत और लगन से जुटे रहें तो एक न एक दिन तब्दीली आएगी. चाहे वह आपके जाने के बाद ही क्यों न आए."

    देश के मौजूदा हाल पर चिंता जताते हुए शबाना ने कहा कि इसकी मूल वजह है कि पूरी लड़ाई को हिंदू बनाम मुसलमान बना दिया गया है.

    उन्होंने कहा, "हमें इससे निकलना चाहिए. इस लड़ाई को कट्टरपंथी बनाम उदारवादी बनाना चाहिए. हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की उदारवादी ताक़त मिलजुल कर साथ आएँ. कट्टरपंथियों से लड़ें. बदलाव ज़रूर आएगा.''

    Getty Images स्मिता पाटिल, श्याम बेनेगल और शबाना आज़मी, कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल (1976) जब श्याम बेनेगल से हुई थी उनकी मुलाक़ात

    अभिनेत्री के करियर की शुरुआत श्याम बेनेगल की फ़िल्म से हुई थी.

    'अंकुर' के लिए निर्देशक से हुई मुलाक़ात का क़िस्सा सुनाते हुए वो कहती हैं, "उस वक़्त तक वो बहुत दुखी इंसान थे, क्योंकि उनकी फ़िल्म को तीन अभिनेत्रियों ने मना कर दिया था. एक तो शायद दक्षिण की लक्ष्मी थीं, एक तो वहीदा रहमान थीं और एक अंजू महेंद्रू तक को ऑफ़र किया था."

    "मुझे नहीं पता कि उन लोगों ने क्यों मना किया था. थोड़ी ही देर में उन्होंने कहा कि ये फ़िल्म आप करोगे और फिर उन्होंने कहा कि मैं एक और फ़िल्म बना रहा हूं निशांत, वो भी आप करोगे. तो मैंने घर आकर मम्मी को बोला कि कोई फ्रॉड फ़िल्ममेकर हैं, पता नहीं मुझे दो-दो फ़िल्में ऑफ़र कर रहे हैं, पता नहीं क्या है इसका चक्कर."

    वो कहती हैं कि उस वक़्त उन्हें कहां पता था कि ये इतनी क़ामयाब हो जाएगी कि समानांतर सिनेमा (पैरेलल) का मूवमेंट शुरू हो जाएगा.

    Getty Images शबाना आज़मी को भारतीय सिनेमा में काम करते हुए 50 साल हो चुके हैं पैरेलल सिनेमा के साथ कॉमर्शियल फ़िल्मों में भी मिली सफलता

    शबाना आज़मी उन अभिनेत्रियों में शामिल हैं जिन्होंने उस धारणा को भी तोड़ा कि एक साथ सामाजिक सरोकार वाली फ़िल्में और मुख्यधारा की फ़िल्मों में सफलता नहीं मिल सकती है. अभिनेत्री को इन दोनों जगह ही सफलता मिली.

    वो ऐसा कैसे कर पाईं और उनके मन में इसके पीछे क्या ख़्याल था. इस बारे में पूछे गए सवाल के जवाब में वो कहती हैं, "देखिए, ऐसा नहीं है कि मेरा ये कोई प्लान था. लेकिन जब मैं पीछे जाकर देखती हूं तो मुझे ऐसी फ़ीलिंग हुई कि अगर मुझे स्टार बनना है तो ये ज़रूरी है कि मेनस्ट्रीम सिनेमा में भी काम करूं. उम्मीद ये थी कि अगर वो मेरी फ़िल्में क़ामयाब हो गईं तो दर्शक आर्ट सिनेमा को देखेंगे."

    BBC शबाना आज़मी की फ़िल्में सिनेमा में औरतों के चित्रण में बदलाव

    शबाना आज़मी सिनेमा की दुनिया में 50 साल लंबा वक़्त गुजार चुकी हूं. इस बीच सिनेमा में काफी कुछ बदला.

    उनसे जब इस अवधि में महिलाओं के चित्रण में बदलाव के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, "काफी कुछ बदला है और काफी कुछ को बदलने की ज़रूरत है."

    "महिलाओं को एक मेल गेज़ से दिखाया जाता है. हालांकि, इस पर कुछ महिलाओं का ये भी कहना होता है, 'उनका जिस्म अच्छा है तो इसे दिखाने में क्या बुराई है, लड़के भी तो ऐसा करते हैं.' इसमें बहुत कंफ्यूजन है. लड़के कोई चीज़ करते हैं तो हम करेंगे, इसे कैसे परिभाषित करेंगे. मेरा मानना है कि ये पूरा कॉन्सेप्ट ही ब्लर है. मैं उम्मीद करती हूं कि जब इसकी बात होती रहेगी तो ये बदलेगा."

    BBC शबाना आज़मी समानांतर सिनेमा के साथ कॉमर्शियल फ़िल्मों में भी सफल रहीं

    शबाना आज़मी ने 1974 में श्याम बेनेगल की फ़िल्म 'अंकुर' से अपने करियर की शुरुआत की. हिंदी सिनेमा में वो अपनी एक अलग धमक के लिए भी जानी जाती हैं.

    'अर्थ', 'स्पर्श', 'मंडी', 'मासूम' 'फ़ायर' 'गॉडमदर' जैसी फ़िल्मों के साथ ही 'अमर अकबर एंथनी' 'एक ही रास्ता' 'परवरिश'समेत' 'रॉकी और रानी' में काम किया.

    बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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