अतुल सुभाष केस : क्या ये क़ानून पति और उसके परिवार को प्रताड़ित करता है?
यह संयोग ही है कि जिस दिन सोशल मीडिया पर वैवाहिक ज़िंदगी में कथित उत्पीड़न के कारण एक युवक की आत्महत्या को लेकर तीखी बहस हो रही थी, उसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही एक मामले में एक आदेश दिया था.
एक मामले में जस्टिस वी. नागरत्ना की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने स्पष्ट रूप से कहा था कि इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) के सेक्शन 498ए का दुरुपयोग किया जा रहा है.
सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में फ़ैसला देते हुए कहा था कि निजी प्रतिशोध के लिए इस सेक्शन का इस्तेमाल पति और उसके परिवार के ख़िलाफ़ किया जा रहा है.
जस्टिस विक्रम नाथ की अध्यक्षता वाली एक और बेंच ने 2021 में रजनीश बनाम नेहा केस के फ़ैसले का उल्लेख किया. इस मामले में कोर्ट ने तलाक़ मामलों में तय किया था कि किस आधार पर जीवन निर्वाह के लिए पैसे मिलने चाहिए.
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34 साल के आईटी प्रोफ़ेशनल अतुल सुभाष की आत्महत्या मामले में आईपीसी के सेक्शन 498ए या भारतीय न्याय संहिता के सेक्शन 85 और 86 की प्रासंगिकता पर सवाल उठ रहे हैं. वैवाहिक विवादों में दायर होने वाले इससे जुड़े मुक़दमों को लेकर भी बहस हो रही है.
सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन (एसआईएफ़एफ़) एक ऐसा संगठन है जो पुरुषों के अधिकारों की लड़ाई लड़ता है.
इसके सदस्य अनिल मूर्ति ने बीबीसी हिन्दी से कहा, ''अतुल बहुत सधे हुए और ठंडे दिमाग़ से सोचने वाले व्यक्ति थे. पिछले तीन सालों से उनकी सैलरी अच्छी-ख़ासी बढ़ी थी. यही उनके लिए अभिशाप साबित हुआ क्योंकि देर-सवेर अदालत में उन्हें सैलरी की जानकारी देनी ही थी.''
बेंगलुरु के एक वकील 498ए को बिना ''दांत के बाघ'' की तरह देखते हैं. लेकिन क़ानून के जानकारों के बीच आईपीसी के सेक्शन 498ए को लेकर एक राय है कि लोग कोविड महामारी दौरान जितना थके नहीं थे, उससे ज़्यादा इस सेक्शन से थक रहे हैं.
बेंगलुरु की वकील अनु चेंगप्पा कहती हैं, ''इन मामलों में महिला और पुरुष दोनों परेशान हो रहे हैं. लोग वकीलों के पास भागते रहते हैं और अदालत तारीख़ पर तारीख़ देती रहती है.''
जस्टिस नागरत्ना और जस्टिस ए कोटिश्वर सिंह की बेंच ने कहा है कि सेक्शन 498ए का मक़सद था कि महिलाओं को ससुराल में दहेज की मांग को लेकर जो प्रताड़ना मिलती थी, उससे बचाया जाए.
लेकिन ऐसा महसूस किया गया कि शिकायतकर्ता पत्नी ने सेक्शन 498ए के प्रावधानों का दुरुपयोग किया.
इस बेंच ने स्पष्ट किया, ''हम एक पल के लिए भी ऐसा नहीं कह रहे हैं कि आईपीसी के सेक्शन 498ए के तहत महिलाओं को क्रूरता ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करने का जो अधिकार है, उसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए या चुप रहना चाहिए.''
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की बेंच ने पति को निर्देश दिया कि विवाह से अलग होने के बदले अपनी पत्नी को वन टाइम सेटलमेंट के तहत जीवन निर्वाह के लिए पाँच करोड़ रुपए दे.
पति और पत्नी महज़ छह साल साथ रहने के बाद 20 साल से अलग रह रहे थे. पति को यह भी निर्देश मिला कि अपने बेटे को भी एक करोड़ रुपए का मुआवज़ा दे.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्थायी मुआवजे़ पर फ़ैसले के दौरान कुछ ख़ास बिंदुओं पर ध्यान देना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, दोनों पक्षों की सामाजिक और आर्थिक हैसियत की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए. पत्नी और बच्चों की ज़रूरतों पर ध्यान देना चाहिए. इसके अलावा शैक्षणिक योग्यता, पति और पत्नी की नौकरी की स्थिति, संपत्ति, ससुराल में पत्नी कैसी ज़िंदगी जी रही थी, पति की वित्तीय स्थिति, ज़िम्मेदारियां और ग़ैर-कामकाज़ी पत्नी के क़ानूनी ख़र्च का ध्यान रखना चाहिए.
अतुल सुभाष ने 24 पन्ने का सुसाइड नोट लिखा था और एक घंटे 21 मिनट का वीडियो भी बनाया था. इसमें उन्होंने पत्नी से कथित प्रताड़ना की बात बताई थी.
गुड़गाँव छोड़ने से पहले सुभाष की पत्नी भी बेंगलुरु में आईटी कंपनी में काम करती थीं. उन्होंन जौनपुर में अपने पति के ख़िलाफ़ केस किया था.
सुभाष ने वीडियो का टाइटल दिया था- यह एटीएम स्थायी रूप से बंद हो गया: भारत में वैध जनसंहार चल रहा है.
उन्होंने वीडियो में अपनी पत्नी और उसके परिवार के सदस्यों पर प्रताड़ना का आरोप लगाया था.
अनिल मूर्ति के अनुसार, सुभाष पिछले तीन सालों से हर साल 40 सुनवाई में शामिल हो रहे थे. उनकी पत्नी ने अलग-अलग अदालतों में मुक़दमा दर्ज कराया था. सुभाष के ख़िलाफ़ कुल छह केस दर्ज कराए थे.
इनमें आईपीसी के सेक्शन 377 के तहत अप्राकृतिक सेक्स का भी मामला था. वीडियो में अतुल ने इन सारे आरोपों को झूठ बताया था.
अतुल सुभाष के भाई विकास कुमार ने अपनी भाभी, भाभी की माँ, भाभी के भाई और चाचा के ख़िलाफ़ सेक्शन 108 (आत्महत्या के लिए उकसाने) और सेक्शन 3 (5) के तहत मामला दर्ज कराया है.
शिकायत में बताया गया है कि सुभाष की 2019 में शादी हुई थी और एक उनका एक बच्चा भी है. तलाक़ के बाद सुभाष की पत्नी, साले और ससुर ने मुआवजे़ के तौर पर तीन करोड़ रुपए की मांग की और मामला दर्ज कराया.
आरोप है कि पत्नी ने सुभाष से बच्चे को मिलने देने के लिए 30 लाख रुपए की मांग की.
पुरुषों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले एनजीओ एसआईएफ़एफ़ के सदस्यों ने इस मामले में पुलिस को अलर्ट किया था.
अनिल मूर्ति ने कहा, ''9 दिसंबर को दोपहर बाद 1:55 बजे हमें मैसेज मिला था. मैं हैरान था क्योंकि अतुल सुभाष ऐसा नहीं था कि आत्महत्या करे. वह डरा हुआ था कि अगर मुआवजे़ का मामला बढ़ा तो इसकी रक़म 40 हज़ार से दो लाख तक बढ़ सकती है. उनकी पत्नी पहले से ही दो लाख की मांग कर रही थीं और एक बार पाँच लाख रुपए की मांग की थी. बड़ी कंपनियों में कब आपको बाहर कर दिया जाए, किसी को पता नहीं होता है.''
मूर्ति ने कहा, ''क़ानूनी व्यवस्था बहुत ही असंवेदनशील है. ऐसे में लोग अति में जाकर सोचने लगते हैं. यहाँ बहुत संयम की उम्मीद नहीं की जा सकती है. अमेरिका में मेंटनेंस एक तय अवधि के लिए होता है जबकि भारत में जीवनभर के लिए चलता है.''
लेकिन वैवाहिक विवादों और उससे जुड़े मामलों को हैंडल करने वाले वकील ऐसी व्याख्या से बहुत सहमत नहीं हैं.
सुप्रीम कोर्ट की सीनियर वकील जायना कोठारी
असोसिएशन फोर एडोवोकेसी एंड लीगल इनिशिएटिव (एएएलआई) की सीमा मिश्रा
एएएलआई निदेशक रेणु मिश्रा बताती हैं कि लखनऊ की अदालतों में किसी केस को संज्ञान में लाने में कितना वक़्त लगता है.
वह बताती हैं, ''498ए के तहत 14 मामलों में आरोपपत्र दाख़िल किए गए और डेढ़ साल में 18 मामलों में आरोप तय हुए. 2020 के एक मामले में तीन साल बाद अंतरिम मुआवज़ा मिला. यहाँ सात ऐसे और मामले थे और तीन साल बाद अंतरिम मुआवज़ा भी नहीं मिला.''
''ऐसा तब है, जब एएएलआई के वकील मामलों को देख रहे थे. अगर आप गंभीरता से चीज़ों को देखेंगे तो पाएंगे कि ऐसा कोई डेटा नहीं है जो बताता है कि 498ए के तहत दर्ज हुए मामलों में कोई फ़ैसला आया हो.''
गीता रामाशेषण मद्रास हाई कोर्ट में वकील हैं. उन्होंने बीबीसी हिन्दी से कहा कि वह एक मामला देख रही है जिसमें उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में घरेलू हिंसा, तलाक़ और 498ए के तहत मामला दर्ज है.
केस दर्ज कराने के बाद महिला ने चेन्नई में नौकरी करना शुरू किया. वह महिला सुप्रीम कोर्ट गई और उन्हें सारे मामलों की सुनवाई चेन्नई में कराने की अनुमति मिल गई.
वो कहती हैं कि इस तरह की छूट का दुरुपयोग भी होता है.
वो कहती हैं,, "उस महिला का पति उत्तर प्रदेश में रहता है. ऐसे में सभी मामलों सुनवाई के लिए उसे चेन्नई आना पड़ेगा. कोर्ट हाज़िर नहीं होना समस्या नहीं है बल्कि पेश नहीं होने पर चेन्नई में कोई ज़िम्मेदारी लेने वाला नहीं मिलेगा. वह किसी को पावर ऑफ़ अटॉर्नी नहीं दे सकता है."
जायना कोठारी अलग-अलग मामलों में अदालतों की टिप्पणी की ओर इशारा करती हैं.
वो कहती हैं, ''कोर्ट का यह कहना कि मुआवज़ा पति के लिए सज़ा के तौर पर नहीं दिखना चाहिए. ऐसी टिप्पणियों का मतलब है कि गुज़ारे भत्ते की अनुचित मांग की जा रही है. इन टिप्पणियों का इस्तेमाल अक्सर महिलाओं के ख़िलाफ़ किया जाता है.''
बेंगलुरु की वकील गीता देवी कहती हैं, ''सभी मुक़दमों को अलग-अलग रूप में देखना चाहिए. किसी एक केस के आधार पर बाक़ियों के मामले में किसी नतीजे पर नहीं पहुँचा जा सकता. हम ये नहीं कह सकते हैं कि ऐसे सारे मामले फ़र्ज़ी होते हैं और ऐसा गुज़ारा भत्ता हासिल करने के लिए होता है. असली समस्या ये है कि अलगाव या तलाक के बाद पत्नी और बच्चों को गुजारा भत्ता या रहने की सुविधा देने वाला कोई कानून मौजूद नहीं है. ऐसे कानून की गैरमौजूदगी में कुछ लोग 498ए को बातचीत के औजार के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं.''
गीता देवी कहती हैं, ''महिलाओं की लंबे समय से मांग रही है कि एक ऐसा क़ानून आए जो वैवाहिक संपत्ति में हिस्सा सुनिश्चित करे. समानता पर रिपोर्ट दायर किए 40 साल हो गए लेकिन महिलाओं की यह मांग पूरी नहीं हो पाई है. 2010 में विवाह नियम (संशोधन) बिल पेश किया गया था. यह बिल वैवाहिक संपत्ति में हिस्सा सुनिश्चित करने से जुड़ा था. लेकिन बिल क़ानून नहीं बन पाया.''
लेकिन अनु चेंगप्पा कहती हैं कि केस को कैसे हैंडल किया जाता है, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है.
वो कहती हैं, ''मिसाल के तौर पर पीड़ित महिला किसी वकील से मिलने से पहले पहले (जो उसे उचित क़ानूनी सलाह दे सकते हैं) 498ए के तहत मामला दर्ज कराने के लिए पुलिस स्टेशन जाती है. पुलिस इन मामलों को किस तरह से हैंडल करती है, यह भी बहुत ज़रूरी है.''
चेंगप्पा कहती हैं कि वकील इन मामलों को कैसे हैंडल करता है, यह भी मायने रखता है.
वो कहती हैं, ''बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर संविधान को अमल में लाने का काम जिन्हें सौंपा गया है वो सही न निकले तो निश्चित रूप से संविधान ख़राब सिद्ध होगा. दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी ख़राब क्यों न हो लेकिन जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए वे अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा.''
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