सच सामने आए
नई दिल्ली: इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज के वायरल हुए विडियो पर जो तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है, उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। उस विडियो में जज साहब जिस तरह की बातें कहते दिख रहे हैं, वे देश के किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद पर बैठे किसी शख्स के मुंह से निकलना वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है। संवैधानिक गरिमा के खिलाफ : हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को संज्ञान में लेते हुए हाईकोर्ट से पूरी जानकारी मांगी है, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रामाणिक तथ्यों की रोशनी में जल्द ही पूरा सच सामने आ जाएगा, लेकिन फिलहाल मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए जो तथ्य सामने आ रहे हैं, वे सचमुच परेशान करने वाले हैं। हैरत की बात है कि संविधान के संरक्षक की भूमिका निभाने वाली न्यायपालिका का वरिष्ठ सदस्य सार्वजनिक कार्यक्रम में कहता दिखता है कि देश (संविधान और कानून के हिसाब से नहीं बल्कि) बहुसंख्यकों की मर्जी के मुताबिक चलेगा और इस विडियो के वायरल होने के बाद भी उसका कोई खंडन या स्पष्टीकरण नहीं आता। बयान का बचाव :
संबंधित न्यायाधीश की चुप्पी के बीच जिस तरह से एक तबका उनके इस कथित भाषण के पक्ष में सामने आया है, वह बताता है कि इस तरह की संविधान विरोधी सोच के फैलने का कितना गंभीर खतरा है। जहां आयोजक संगठन की ओर से यह कहा गया कि भाषण को संदर्भ से काटकर पेश किया जा रहा है, वहीं विश्व हिंदू परिषद के प्रमुख यहां तक बोल गए कि अगर जज ने ऐसा कुछ कहा भी है तो उन्हें इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगता। इकलौता मामला नहीं :
ध्यान रहे, यह जुडिशरी के वरिष्ठ सदस्यों द्वारा जाने अनजाने संवैधानिक मर्यादा के उल्लंघन से जुड़ा कोई पहला विवाद नहीं है। कुछ ही दिनों पहले कर्नाटक हाईकोर्ट के एक जज द्वारा एक मुस्लिम बहुल इलाके का जिक्र 'पाकिस्तान' के रूप में किए जाने का मामला सामने आया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कार्रवाई भी शुरू की थी। हालांकि बाद में उस जज के माफी मांगने पर कार्यवाही रोक दी गई। मौजूदा विवाद से जुड़े जज की बात करें तो वह इससे पहले भी ऐसी टिप्पणियां कर चुके हैं। मसलन, जुलाई 2021 में एक मामले में फैसला सुनाते हुए उन्होंने कहा था कि 'धर्मांतरण से देश कमजोर होता है'। उपयुक्त कार्रवाई हो :
ऐसे में इस मामले को सिर्फ किसी एक जज के एक बयान के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए। जरूरी है कि इस मामले का पूरा सच जानकर इसमें उपयुक्त कार्रवाई तो की ही जाए, पर इसके साथ ही न्यायपालिका में गिरावट लाने वाली इस व्यापक प्रवृत्ति पर रोक लगाने की दिशा में भी गंभीर प्रयास तत्काल शुरू किए जाएं।
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