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संपादकीय: पाक आर्मी चीफ का कबूलनामा, सवाल तो नीयत का है

पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर की यह स्वीकारोक्ति महत्वपूर्ण है कि 1999 के करगिल युद्ध में पाकिस्तानी सेना शामिल थी। पहली बार पाकिस्तान सेना ने इतने ऊंचे स्तर पर और इतने स्पष्ट रूप में यह सच स्वीकार किया है। यह कबूलनामा साबित करता है कि चाहे कोई व्यक्ति हो या देश, सच से ज्यादा समय तक भाग नहीं सकता। देर-सबेर उसे सच को मानना ही पड़ता है। झूठा दावा तथ्य यह है कि 1999 में करगिल में चोरी-छुपे भारत की सीमा में घुस आने के बाद भी पाकिस्तान सेना इस तथ्य से मुंह चुराती रही। उसने बार-बार यही कहा कि करगिल में कश्मीर के स्थानीय लड़ाके ही लड़ाई लड़ रहे हैं। यहां तक कि भारत ने जब इस युद्ध में मारे गए पाकिस्तानी सैनिकों के शव सौंपने चाहे, तब भी पाकिस्तान ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया। मुश्किल था छुपाना
बाद के घटनाक्रम ने साफ किया कि पाकिस्तान के लिए इस सच को छुपाना मुश्किल साबित हो रहा था। लिहाजा वह टुकड़ों और इशारों में सच बताता रहा। करगिल युद्ध के दौरान सेना प्रमुख रहे और बाद में राष्ट्रपति बने परवेज मुशर्रफ ने 2006 में आई अपनी किताब में स्वीकार किया कि करगिल प्रकरण के चलते उनके और तत्कालीन पीएम नवाज शरीफ के बीच दरार आई। 2010 में पाकिस्तान सेना ने आधिकारिक वेबसाइट पर शहीदों का कोना खंड के अंतर्गत करगिल संघर्ष में मारे गए 453 सैनिकों के नाम डाले। पिछले दिनों पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भी मान चुके हैं कि पाकिस्तानी सेना ने लाहौर समझौते का उल्लंघन किया था। रिश्तों पर असर नहीं
पाकिस्तानी आर्मी चीफ के ताजा बयान को सच स्वीकारने की दो दशक पुरानी कोशिशों की नवीनतम कड़ी के ही रूप में देखा जा सकता है। लेकिन अब जब पाकिस्तानी सेना ने सर्वोच्च स्तर पर करगिल युद्ध का सच मान लिया है तो सवाल यह है कि क्या इससे दोनों देशों के रिश्तों पर कोई पॉजिटिव प्रभाव पड़ेगा। सीधा जवाब यह है कि ऐसी कोई संभावना कम से कम फिलहाल नजर नहीं आ रही। ढुलमुल रवैयादिक्कत यह है कि इस स्वीकारोक्ति के पीछे ईमानदारी और साफगोई नहीं है। हालांकि हाल में पाकिस्तान की तरफ से रिश्ता सुधारने की परोक्ष पेशकश कई बार आ चुकी है, SCO की बैठक के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पाकिस्तान आने का न्योता भी भेजा गया है, लेकिन आतंकी तत्वों से दूरी दिखाने का कोई उल्लेखनीय प्रयास आज भी नजर नहीं आता। खुद आर्मी चीफ ने अपने ताजा बयान में भी कश्मीर को ग्लोबल मसला बताया जबकि शिमला समझौते में दोनों देश इसे एक द्विपक्षीय मुद्दा मान चुके हैं। ऐसा रवैया रिश्तों को बेहतरी की ओर कैसे ले जा सकता है?

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