संपादकीय:मुश्किल में I.N.D.I.A. ,चुनावी नाकामियों ने दरार बढ़ाई
महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल से आ रही खबरों से साफ होता है कि विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. में सब कुछ सही नहीं चल रहा। लगातार चुनावी नाकामियों से पैदा हुई बेचैनी गठजोड़ पर भारी पड़ रही है। एक-दूसरे के खिलाफ असंतोष और बयानबाजी विपक्ष के लिए बिल्कुल भी शुभ संकेत नहीं। नेतृत्व से खफा महाराष्ट्र में सपा का शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट से नाराजगी की बात कहते हुए महाविकास अघाड़ी गुट से नाता तोड़ना भले राज्य की सियासत पर असर न डाले, लेकिन इसके गहरे मायने हैं। इसी तरह, तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और बंगाल की सीएम ममता बनर्जी का I.N.D.I.A. को लीड करने की इच्छा जाहिर करना भी बहुत कुछ कहता है। इन दोनों की नाराजगी गठबंधन के नेतृत्व और इस तरह से सीधे कांग्रेस को लेकर है। एकता नहीं
विपक्ष में सबसे ज्यादा कमी दिखाई देती है आम सहमति की। सीटों से लेकर मुद्दों तक, दोस्त दलों के बीच कहीं एकजुटता नहीं दिखती। यह बात इस शीतकालीन सत्र में भी साबित हो गई, जब अदाणी मामले पर कांग्रेस और TMC ने अलग राह पकड़ ली। दरअसल, यह टकराव राष्ट्रीय राजनीति में फिर से मजबूत होने की कोशिश कर रही कांग्रेस और अपने स्पेस के लिए लड़ रहीं क्षेत्रीय सियासत की धुरंधर पार्टियों के बीच का ज्यादा है। सामंजस्य की कमी
देखा जाए तो समय-समय पर इस तरह की खबरें आती रही हैं, जो विपक्षी एकता के लिए चुनौती खड़ी कर देती हैं। कुछ अरसा पहले ही यूपी में उपचुनाव को लेकर कांग्रेस और सपा के बीच जैसी असहज स्थिति बनी थी, वैसा सहयोगियों के बीच तो नहीं होता। महाराष्ट्र इलेक्शन के दौरान भी सहयोगी दलों में तालमेल की कमी होने की बात सामने आई थी। बंगाल में पहले ही कांग्रेस और TMC एक-दूसरे के विरुद्ध हैं। इसी तरह, दिल्ली में AAP और कांग्रेस में गठजोड़ नहीं है। ऐसा नैशनल अलायंस समझ से बाहर है, जिसमें इतने अंतर्विरोध हों। जहां पार्टियां आम चुनाव में साथ हों, लेकिन राज्यों के चुनाव में आमने-सामने। ऐसे में इन दलों के समर्थकों की उलझन की सहज की कल्पना की जा सकती है। त्याग कौन करेगा
गठबंधन चलता है समझौतों से, जब सारे पक्ष थोड़ा-थोड़ा त्याग करें। यहां सवाल है कि कौन समझौता करेगा? अभी तक तो यही हुआ कि जहां जो दल मजबूत था, वहां उसने दूसरे सहयोगी दलों को अपने बात मनवाने की कोशिश की। कांग्रेस पर सबसे बड़ा आरोप यही है। आगे बड़ी मुश्किलविपक्ष के लिए सबसे बड़ी चिंता यह है कि आम चुनाव के बाद वह जितना एकजुट और मजबूत नजर आ रहा था, अब उतना ही बिखरा दिख रहा है। जम्मू-कश्मीर और झारखंड की जीत इतनी बड़ी नहीं है, जो बाकी हार को छुपा सके। इन दोनों राज्यों में भी अलायंस की जीत में क्षेत्रीय दलों की बड़ी भूमिका रही और कांग्रेस की कम। इसलिए अब विपक्षी अलायंस के नेतृत्व को लेकर भी उसे चुनौतियां मिल रही हैं। खैर, आने वाले चुनाव विपक्षी अलायंस के भविष्य के लिए भी अहम हैं। विपक्ष की मजबूती उसके खुद के लिए ही नहीं, एक मजबूत लोकतंत्र के लिए भी जरूरी है।
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