संपादकीय: सत्ता पक्ष और विपक्ष की तू-तू मैं-मैं में नेहरू-सावरकर को घसीटना बंद करें

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लोकसभा में संविधान को लेकर हुई दो दिनों की बहस न केवल समकालीन राजनीतिक मुद्दों पर बल्कि लोकतंत्र, समाज और इतिहास से जुड़े कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के अलग-अलग नजरियों को स्पष्ट कर गई। आरक्षण पर आमने-सामनेइस बहस का भी एक बड़ा बिंदु आरक्षण ही रहा। जहां विपक्ष ने इन आरोपों को दोहराया कि सत्ता पक्ष मूल रूप से आरक्षण की व्यवस्था के खिलाफ है और जब-तब दबे-छुपे ढंग से उसकी यह अंदरूनी इच्छा संघ और पार्टी के छोटे-बड़े नेताओं के बयानों से जाहिर होती रहती है। जवाब में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट किया कि आरक्षण की जो व्यवस्था अभी लागू है, उनकी सरकार उस पर आंच नहीं आने देगी, लेकिन धर्म के आधार पर आरक्षण देने की कोई भी कोशिश वह सफल नहीं होने देगी। जाहिर है, इसमें मतदाताओं की अपने अनुकूल गोलबंदी करने की दोनों पक्षों की कोशिश भी देखी और पहचानी जा सकती है। तानाशाही का आरोप
तानाशाही एक और ऐसे बिंदु के रूप में उभरी, जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष के आरोप समान ही रहे। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर आरोप लगाया कि वह अपनी मनमानी चलाते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाता रहा है। इस मामले में जहां कांग्रेस का फोकस पिछले दस सालों पर केंद्रित रहा, वहीं BJP का पॉइंट यह था कि आजादी के बाद से 55 साल तक सत्ता एक ही परिवार के हाथों में रही। जाहिर है, सबसे ज्यादा नुकसान इसी परिवार ने किया। उनका संकेत गांधी परिवार की ओर था। इमरजेंसी का पुराना आरोप भी उछला, लेकिन नई बात यह रही कि इस पर बचाव की मुद्रा अपनाने के बजाय कांग्रेस इस तर्क के साथ सामने आई है कि BJP को भी अपनी गलतियों के लिए माफी मांगनी चाहिए। संविधान की रक्षा
बहरहाल, इसमें शक नहीं कि बहस का केंद्र यही सवाल रहा कि कौन संविधान और संवैधानिक मूल्यों को लेकर समर्पित है और कौन इस पर दोहरा खेल खेल रहा है। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने जहां सावरकर के सहारे BJP पर निशाना साधा वहीं पीएम मोदी ने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की गलतियां गिनाईं। महापुरुषों को बख्शेंपूरी बहस का यही बिंदु ऐसा था जो थोड़ा जायका बिगाड़ने वाला कहा जा सकता है। लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष की तू-तू मैं-मैं चलती रहती है, लेकिन इसमें महापुरुषों को घसीटना अब बंद होना चाहिए। हमारे हर महापुरुष ने अपने समय, समाज और समझ की सीमाओं में रहते हुए कुछ ऐसा योगदान किया, जिसके लिए हम कृतज्ञ महसूस करते हैं। इसका मतलब उनके हर विचार से सहमति रखना या उनके हर कृत्य को समर्थन देना नहीं है। लेकिन उनके प्रति समाज की या उसके एक हिस्से की भी भावनाओं का सम्मान हमारी राजनीति को बिना शर्त करना चाहिए।