राज शांडिल्य EXCLUSIVE: अगर मैं राइटर नहीं होता तो शायद क्रिकेटर होता, लखनऊ से मोहब्बत है

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कॉमिडी को गंभीर विषय मानने वाले लेखक और निर्देशक राज शांडिल्य ने हमेशा अपनी फिल्मों से एक खास संदेश देने के साथ दर्शकों को गुदगुदाया है। फिर चाहे ‘जनहित में जारी हो’ या ‘विकी-विद्या का वो वाला विडियो’। लिखते वक्त वह फैमिली ऑडियंस का पूरा खयाल रखते हैं क्योंकि उन्हें नॉटी और वल्गर कॉमिडी के बीच का फर्क बड़े अच्छे से पता है। बीते दिनों वह लखनऊ आए तो झांसी से मुंबई तक के सफर के अलावा राइटिंग की बारीकियों, क्रिकेट के प्रति अपने असीम प्रेम को उन्होंने खुलकर जाहिर किया। नॉटी और वल्गर कॉमिडी में बड़ा फर्क हैमैंने 2004-05 में कॉमिडी लिखनी शुरू की थी। कॉमिडी सर्कस 2006 में किया, उससे पहले लाफ्टर चैलेंज जैसे शो किए। तब टीवी पर ही कॉमिडी होती थी। हमें फैमिली ऑडियंस का खयाल रखना पड़ता था। अब सोशल मीडिया में आप गाली देकर भी कॉमिडी कर सकते हो। नॉटी और वल्गर कॉमिडी में बड़ा फर्क है। मैंने हमेशा इसका ध्यान रखा है। पिछले 15-20 साल में जो किया, वो आज भी चल रहा है। हालांकि, आज के दौर में कब किसकी भावनाओं को ठेस पहुंच जाए, ये बड़ा पेचीदा हो गया है। कॉमिडी हमेशा से गंभीर विषय रहा है। कई इसे मजाक में लेते हैं पर लोगों को हंसाना बहुत मुश्किल काम है। बच्चा पैदा होता है तो वो रोता है। भगवान भी हंसता बच्चा पैदा नहीं कर पाए हैं। अगर वो नहीं कर पा रहे तो हमारे लिए कितना कठिन होगा। ये कठिन पहले से था, आज है और आगे भी रहेगा। नकली हंसी तो ना हंसोमेरे हिसाब से हर दिन हंसने-हंसाने वाला होना चाहिए। किसी के चेहरे पर हंसी का मतलब ही त्योहार है। अगर कोई हंस रहा तो उससे बड़ा खुशी का पल कोई नहीं होता है। लोग सुबह-सुबह योग करते वक्त नकली हंसी हंसते हैं, वो नहीं होना चाहिए। आप आधे घंटे का एक शो रख लो, चुटकुले सुन लो, यूट्यूब पर कॉमिडी देख लो पर नकली हंसी तो ना हंसो। अगर हंसी अंदर से आएगी और उसमें सच्चाई होगी तो आपका ही फायदा होगा। पिज्जा नहीं, पूड़ी-सब्जी खाऊंगामैं बहुत देसी आदमी हूं। पता है कि मैं छोटे शहर से हूं। रेलवे से लेकर बस-टैम्पो तक सबसे मुखातिब रहा। उस वक्त टीवी-केबल नहीं थे, रेडियो होता था। वो वक्त देखा है इसलिए देसी होना जड़ों में है। इसे दरकिनार नहीं कर सकता। एकतरफ पिज्जा बिक रहा हो और दूसरी तरफ छोले-पूड़ी तो मैं छोले-पूड़ी की तरफ ही जाऊंगा। भारत एक कृषि प्रधान गांव वाला देश है। संस्कृति-सभ्यता से गहरे से जुड़ा हूं। इसे अपनी फिल्मों में भी दिखाता हूं। मैं मथुरा, ऋषिकेश में फिल्में बनाता हूं। उन्हीं जगहों पर फिल्में करता हूं, जहां गलियां हों। मेरे फ्रेम में एक कुत्ता या गाय तो जरूर आने चाहिए, तभी तो फील आएगा। अगर मुझमें ये सब नहीं होगा तो मैं लंदन की गलियों में जाकर फिल्में शूट करूंगा ना। इल्म को फिल्म में ले आना मेरी कलामैंने विकी-विद्या का वो वाला वीडियो में साइड कैरेक्टर्स को बहुत मजबूत रखा। वे सब किरदार किसी ना किसी की जिंदगी से जुड़े मिलेंगे आपको। इसमें जब अर्चना पूरन सिंह को मफलर बांधे, मुंह में मसाला दबाए और सबसे ज्यादा ठंड लगने वाली मां का किरदार दिया और जब वो गेटअप में आईं तो कोई उन्हें पहचान ही नहीं पाया। दरअसल, ऐसी महिलाएं मेरे मोहल्ले में थीं। सेट पर जब प्रोड्यूसर आए तो वह उनको पहचान ही नहीं पाए। मैंने टीकूजी के किरदार में जो एक आंख बंद दिखाई है, वैसा भी इंसान देखा है। मैं जब लिख रहा था, तभी दिमाग में टीकूजी का खयाल आ गया। इन सब किरदारों से मैं कहीं ना कहीं मिला हूं। मैंने ऐसा इंस्पेक्टर भी देखा, जो पाइल्स की वजह से बस खड़ा ही रहता था। कुछ लोग कहते हैं कि ये फिल्मी हैं। मैं बता दूं कि इसमें कुछ फिल्मी नहीं है। जो चीज आपके जेहन में है, जो चीज आप सोच रहे हैं, वो कहीं ना कहीं तो हुई है, तभी दिमाग में दौड़ी है, वरना कभी नहीं आती। उस इल्म को फिल्म में ले आना मेरी कला है। मेरा काम ऑब्जर्व करना है और उसी के हिसाब से लिखना या डायरेक्ट करना है।
लिखते समय पता होता कि किसको लेना हैमैं हमेशा वो विषय उठाता हूं, जो बॉलिवुड में किसी ने ना देखे हों। 'जनहित में जारी' में लड़की को कॉन्डम बेचते दिखाया। 'द ग्रेड वेडिंग ऑफ मुन्नेस' में अभिषेक बनर्जी को ऐसा बनाया, जबकि वो कह रहे थे कि सर कैसा लगूंगा। मैंने कहा कि लगते हो इसलिए बना रहा हूं। फिर उसे कैरी करना ऐक्टर का काम है। 'ड्रीम गर्ल' में मैंने आयुष्मान खुराना से खुलकर ऐक्टिंग करवाई। अब जब कुछ लिखता हूं तो जेहन में रहता है कि किसके लिए लिख रहा हूं। मल्लिका शेरावत को ध्यान में रखकर ही मैंने उनके लिए रोल लिखा और उनको फोन कर बताया कि विजय राज के साथ आपकी जोड़ी बनाई है। ऐसा नहीं होता कि मैंने लिख दिया और फिर किरदार ढूंढ रहा हूं। इसके लिए इंतजार भी करता हूं कि जब समय होगा, तभी करेंगे पर तय लोगों के साथ ही करेंगे। फटाफट लिखने वाला राइटर बन गयामैंने टीवी बहुत किया है। झांसी से जब मुंबई गया तो देखा कि सब तो लिख रहे तो मैं क्या लिखूंगा। फिर सोचा कि मैं जल्दी लिखूंगा। आज फटाफट डिलिवरी वाला वक्त है और यह बात मैं 20 साल पहले समझ गया था। जो एक हफ्ते में देने को कहता था, मैं वही एक दिन में लिखकर दे देता था। मैं इंडस्ट्री में फटाफट लिखने वाला राइटर बन गया। मैं नाना पाटेकर, अनिल कपूर, नसीर साहब, परेश रावल जैसे बड़े स्टार्स का दरिया पार करके यहां तक पहुंचा हूं। ‘वेलकम बैक’ में नाना पाटेकर ने मेरी लिखी एक लाइन तक नहीं बदलवाई थी क्योंकि उनके डायलॉग्स उसी तरीके से लिखे थे, जिस तरह से वो बोलते हैं। मैं अगर मिथुन, गोविंदा, शाहरुख या सलमान खान के लिए लिखूंगा तो उन्हीं की तरह होगा। राइटर का यही तो काम है। उसको पता होता है कि क्या किस पर नहीं लिखना है और यह अनुभव से आता है।
विनोद काम्बली के साथ मैं भी रोया थाक्रिकेट मेरा पहला प्यार है। मैंने क्रिकेट बहुत खेली है। अगर राइटर नहीं होता तो शायद क्रिकेटर होता। झांसी में बहुत बड़ा बुंदेली क्रिकेट लीग हो रहा है। भोपाल में उसका फिनाले है और मैं उसका ब्रैंड ऐम्बैस्डर बनाया गया हूं। पर मैंने कहा कि मुझे भी अपनी टीम बनाने दो, भले चाहे पैसे ना दो। मैंने झांसी जैगुआर बनाई है। क्रिकेट से लगाव इसलिए है कि बचपन में बस यही एक खेल था, जिसे हम घर के बाहर खेल सकते थे। 1996 में जब भारत विश्वकप के सेमीफाइनल में हारा तो कांबली के साथ मैं भी बहुत रोया और सुबह तक सिसकता रहा। आज तो सबकुछ है पर बचपन में उतने रिसोर्सेज नहीं थे। कहां जाना, किधर सिलेक्शन देना है, ये भी पता नहीं था। नजदीक में खेलते थे तो डांटकर बुला लिए जाते थे। हालांकि, आज के दौर में मां-बाप बोलते हैं कि जाओ जाकर खेलो। मैं चाहता हूं कि भविष्य में अपनी क्रिकेट लीग वगैरह कराऊं। मैं फैन तो सचिन तेंदुलकर का हूं क्योंकि उनसे ऊपर कोई है नहीं। आप कह सकते हैं कि मैं कुंबले और श्रीनाथ के जमाने वाला हूं। पिताजी ने कहा, 'जो मेन रूट में पड़े वहीं एडमिशन लो'मैंने झांसी से इंजीनियरिंग के फॉर्म भरे, पढ़ाई दिल्ली में की। नंबर आया तो आईआईटी नागपुर मिला, जबकि बाद में भोपाल से किया। मेरे पिता रेलवे वाले हैं। उन्होंने कहा, 'बेटा जो मेन रूट में पड़े, वहीं आसपास चले जाओ।' मैं भोपाल चला गया। वहां बहुत जानने वाले हैं। हमारे झांसी में एक सिंगर थे, जो मुंबई फिल्मों में गाने गाकर आए थे। वो मुझे भोपाल में मिल गए। मैंने कहा, 'आप यहां क्या कर रहे।' उन्होंने बताया कि मैं तो मुंबई छोड़ आया। मैंने कहा, 'लोगों को जाने का मौका नहीं मिलता, आप छोड़कर आए गए। एक काम करते हैं कि मैं आपको मुंबई छोड़ने चलता हूं।' इसी बीच, वीआईपी और बहुत से लोग भोपाल आए थे, उनसे मुलाकात हुई। मैंने कहा था कि कभी आऊंगा तो मिलूंगा। मैं फिर जब उनको छोड़ने गया, तब उनसे मुलाकात की। वहां से राइटिंग शुरू की। हर शुक्रवार को भोपाल से फ्लाइट पकड़कर मुंबई जाता था। डेढ़-पौने दो साल यही चला। जब लगा कि समझ में आ रहा, तब थर्ड सेमेस्टर कंप्लीट करके वहां शिफ्ट हो गया। लखनऊ हमारी फिल्मों की जान हैलखनऊ से मोहब्बत नहीं होगी तो किससे होगी। यह हमारी फिल्मों की जान है। मैं खुद झांसी से हूं। यूपी में मैंने कई फिल्में शूट की हैं। सबसे पहले इस शहर में पासपोर्ट बनवाने आया था। उस वक्त अकेला था और आज भी मेरे पास उस ड्राइवर का नंबर है। यह नवाबों और गलावटी कबाब का शहर है। हालांकि, मैं वेजिटेरियन हूं। हर महसूस करने वाले शहर की एक खुशबू होती जैसे हमारे यहां अयोध्या, बनारस, मथुरा है, वैसा ही जबरदस्त शहर लखनऊ है। लगता है कि जैसे ही मौका मिले तो मैं तुरंत यहां आ जाऊं।