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राजेश कुमार: कोई मां-बाप नहीं कहते कि मेरा बेटा किसान बनेगा, जब तक फ्री में धनिया मांगेंगे उनका भला नहीं होगा

वह लंबे समय तक 'साराभाई वर्सेस साराभाई' के भोले-भाले रोसेश के रूप में लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाते रहे। फिर, भीतर खुद से आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ करने के जज्बे ने जोर मारा, तो सारी चमक-दमक छोड़कर बिहार के अपने गांव में खेती करने में जुट गए। हम बात कर रहे हैं, राजेश कुमार की जो बड़े गर्व से खुद को ऐक्टर/किसान कहते हैं। जल्द ही फिल्म 'बिन्नी' और 'फैमिली' में नजर आने वाले राजेश कुमार से हमने की यह खास बातचीत फिल्म में आप दो पीढ़ियों दादा और पोती के बीच पुल की भूमिका निभा रहे हैं। इस किरदार से किसी तरह से रिलेट किया?
सच बताऊं तो फिल्म में विनय का किरदार और मैं बिल्कुल एक जैसे हैं। मैं फिल्म के लेखक-निर्देशक संजय त्रिपाठी जी को यही कहा था कि यह किरदार हम ही हैं। हमारी पीढ़ी के सामने हमेशा ये समस्या रहेगी कि हमको दो पीढ़ियों को संभालना है। वहीं, कहानी की जो पृष्ठभूमि है, जैसे यह किरदार मेरी ही तरह बिहार का है, दिल्ली में पढ़ाई-लिखाई की है। उसने साउथ दिल्ली की लड़की से लव मैरिज की है, मैंने साउथ मुंबई की लड़की से शादी की है तो काफी कुछ एक जैसा है। इसके अलावा, स्क्रीन पर बेटे और पिता को रिश्ता है कि वो डर है या सम्मान है, असल जिंदगी में हमारा भी अपने पिता संग वैसा ही रिश्ता है तो मेरा यही मानना था कि यह किरदार मुझसे अच्छा कोई नहीं सकता था।
फिल्म की तरह आपके अपने पिता जी भी बिहार से हैं, जबकि आपके बच्चे मुंबई में पले-बढ़े हैं। क्या घर में भी वो जेनरेशन गैप देखने को मिला? उनका दादा-दादी के साथ कैसा रिश्ता है?वे शुरू में थोड़े कन्फ्यूज रहते थे। मेरा पिताजी के प्रति जो सम्मान या सहमा हुआ व्यवहार था, उसकी मिमिक्री करते हैं। वे शुरू में सहमे भी कि शायद उन्हें भी दादा-दादी से ऐसे ही बात करनी होगी लेकिन जल्द ही उनका डर निकल गया, क्योंकि मेरे पिता जी का व्यवहार उनके साथ बिल्कुल अलग है। वो कहते हैं ना कि हम अपने बच्चे का बचपन पोते-पोती के जरिए जीते हैं, क्योंकि जब हम बड़े हो रहे थे तब तो पिता जी कमाने में लगे थे।
आपने ऐक्टिंग जैसे ग्लैमरस प्रफेशन को छोड़कर जब गांव में खेती करने का फैसला किया, तब पत्नी और बच्चों की क्या प्रतिक्रिया थी, क्योंकि हम जय किसान कहते जरूर हैं, लेकिन उसे उस सम्मान की नजर से देखते नहीं हैं?आपने बिल्कुल सही कहा। यह सोच ही मूल समस्या है कि आज 144 करोड़ आबादी वाले देश में एक प्रतिशत मां-बाप भी ऐसे नहीं होंगे जो कहें कि मेरा बच्चा बड़ा होकर किसान बनेगा। वो तो कोविड में लोगों को समझ में आया कि आखिर में तो सबकुछ आप अच्छा खाने के लिए कर रहे हैं, तो उसे उगाने वाला इंपॉर्टेंट है कि नहीं। अगर हम उसे ग्लैमराइज नहीं करेंगे, उसकी समस्या के प्रति लोगों को जागरूक नहीं करेंगे तो जिस तरह चीजें खराब हो रही हैं, उसका खामियाजा अगली पीढ़ी भुगतेगी। इसलिए मैंने यह फैसला लिया खुद से आगे बढ़कर यूनिवर्स के बारे में सोचना चाहिए और मैंने यह रिस्क लिया। मैंने 42 की उम्र में यह सोचा जब मैं प्राइम पर था, क्योंकि मुझे लगा कि यही समय है। अभी मेरे अंदर बहुत ऊर्जा है। 60 की उम्र में जब मेरे हाथ पांव थोड़े ठंडे पड़ जाएंगे, तब शायद मैं ये करने की नहीं सोच पाता। बच्चों को थोड़ा समझाना पड़ा पर वे उस चीज का सम्मान करते हैं। चाहे सब्जी बेचने वाला हो या उगाने वाला हो, उनके प्रति आदर रखते हैं। खाने-पीने को लेकर उनके नखरे नहीं है, क्योंकि वे समझते हैं कि चाहे वह सब्जी बेचने वाला हो, चाहे उगाने वाला हो। एक ग्रेटीट्यूड है इनका। खाने पीने को लेकर के नखरे नहीं है क्योंकि उसके महत्व को समझते हैं।
आपने खेती का फैसला सामाजिक बदलाव लाने की नीयत से किया था, सुना था कि काम के अभाव के चलते आपको ये कदम उठाना पड़ा था?नहीं, नहीं, काम की बिल्कुल कमी नहीं थी। मैंने खुद जान-बूझकर काम नहीं किया, क्योंकि टेलीविजन में एक सैचुरेशन आता ही है, तो यह परिवर्तन बहुत सहजता से हुआ। मेरा शो नीली छतरी वाले खत्म हो रहा था। उसके बाद नया काम आता, उससे पहले ही खेती वाले ख्याल ने मुझे उत्साहित कर दिया और मुझे लगा कि ये भी एक अच्छा करियर ऑप्शन हो सकता है। आप साथ ही एक समस्या का समाधान भी तलाश रहे हैं और कहीं न कहीं मेरे खून में खेती है तो मुझे लगा कि वो करते हैं।
आपने 42 की उम्र में जैविक खेती करने का जो रिस्क लिया, उसमें शुरू में आपको काफी नुकसान भी हुआ। आप कंगाली की हालात तक पहुंच गए। उस निराशाजनक दौर में अपना हौसला कैसे बनाए रखा? और इससे उबरे कैसे?उससे निकलने में तो परिवार ने ही सपोर्ट किया। पिता जी ने जब देखा कि बेटा तो एकदम ही दलदल में फंस गया है तो निकालने के लिए आ गए। उन्होंने लोन चुकाया और मुझे उस लेवल पर फिर खड़ा किया कि जहां से मैं आगे कदम बढ़ा सकूं, पर सच कहूं मेरे मन में तब भी निराशा वाले भाव नहीं थे। मेरे मन में ये था कि मैंने वाकई बहुत बढ़िया कोशिश की। मुझे उससे पता चला कि दिक्कतें कहां हैं? मैं वहां फेल हुआ, जहां शायद हिंदुस्तान का हर किसान फेल होता है। मैंने बाढ़ झेली, खेत में आग लग गई। तब मैंने सीखा कि हम शहर में बैठे हुए जो लोग हैं ना, जिस दिन वे फ्री में धनिया मांगना बंद करेंगे ना, उस दिन किसान का उत्थान हो जाएगा। मतलब हर चीज उगाने में बहुत मेहनत जाती है। जिस दिन आप उस महत्व को समझ जाएंगे ना, उस दिन आप किसान की हर प्रॉब्लम को समझ जाएंगे। तब आपको राउंड टेबल पर बैठकर किसानों की आत्महत्या पर परिचर्चा नहीं करनी पड़ेगी। मुझे प्रकृति ने उस असफलता के जरिए ये बातें बहुत अच्छे से सिखाई। आज हमारे साथ जो किसान जुड़े हैं, वे कई गुना ज्यादा मुनाफा कमा रहे हैं।
वैसे टीवी से ब्रेक लेने का आपका फैसला भी रंग लाया। इधर आप काफी विविधरंगी किरदार निभा रहे हैं। उससे कितने संतुष्ट हैं?मैं बहुत ही ज्यादा खुश हूं। इस साल तेरी बातों में ऐसा उलझा जिया और रौतू का राज के बाद बिन्नी और फैमिली के रूप में तीसरी फिल्म आ रही है। कोटा फैक्ट्री और ये मेरी फैमिली के तीन सीजन आ गए। खास बात यह है कि अब लोग मुझे राजेश कुमार के रूप में देख रहे हैं, रोसेश के रूप में नहीं। मेकर्स का मुझमें आत्मविश्वास बढ़ा है कि यार, यह बंदा ये भी कर सकता है, वो भी कर सकता है। वो जो मैं एक जॉनर में अटक गया था, वो हट गया है।
हालांकि, रोसेश का साया आप पर से हटा नहीं है। सोशल मीडिया पर उसके खूब मीम्स आते रहते हैं?अब वो तो ऐसा है कि जैसे, बच्चन साहब के नाम से कभी एंग्री यंग मैन नहीं गया। शाहरुख खान के नाम से राहुल नहीं गया गया। दिवंगत पंकज उधास जी की चिट्ठी आई है, आई है, आती ही रहती है। इसका कुछ नहीं कर सकते।

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