अगर आपका प्रेमी भी करता है आपके प्यार पर शक तो इस वीडियो में जाने इसे दूर करने का सही तरीका

Hero Image

ओशो ने बताया प्रेम क्या है और अगर ये सत्य है तो इसमें शर्तें क्योँ है ? प्रेम और सच्चे प्रेम में बहुत भेद है, क्योंकि प्रेम बहुत तलों पर अभिव्यक्त हो सकता है। जब प्रेम अपने शुद्धतम रूप में प्रकट होता है--अकारण, बेशर्त--तब मंदिर बन जाता है। और जब प्रेम अपने अशुद्धतम रूप में प्रकट होता है, वासना की भांति, शोषण और हिंसा की भांति,र् ईष्या-द्वेष की भांति, आधिपत्य, पजेशन की भांति, तब कारागृह बन जाता है।

कारागृह का अर्थ है: जिससे तुम बाहर होना चाहो और हो न सको। कारागृह का अर्थ है: जो तुम्हारे व्यक्तित्व पर सब तरफ से बंधन की भांति बोझिल हो जाए, जो तुम्हें विकास न दे, छाती पर पत्थर की तरह लटक जाए और तुम्हें डुबाए। कारागृह का अर्थ है: जिसके भीतर तुम तड़फड़ाओ मुक्त होने के लिए और मुक्त न हो सको; द्वार बंद हों, हाथ-पैरों पर जंजीरें पड़ी हों, पंख काट दिए गए हों। कारागृह का अर्थ है: जिसके ऊपर और जिससे पार जाने का उपाय न सूझे।

मंदिर का अर्थ है: जिसका द्वार खुला हो; जैसे तुम भीतर आए हो वैसे ही बाहर जाना चाहो तो कोई प्रतिबंध न हो, कोई पैरों को पकड़े न; भीतर आने के लिए जितनी आजादी थी उतनी ही बाहर जाने की आजादी हो। मंदिर से तुम बाहर न जाना चाहोगे, लेकिन बाहर जाने की आजादी सदा मौजूद है। कारागृह से तुम हर क्षण बाहर जाना चाहोगे, और द्वार बंद हो गया! और निकलने का मार्ग न रहा!

मंदिर का अर्थ है: जो तुम्हें अपने से पार ले जाए; जहां से अतिक्रमण हो सके; जो सदा और ऊपर, और ऊपर ले जाने की सुविधा दे। चाहे तुम प्रेम में किसी के पड़े हो और प्रारंभ अशुद्ध रहा हो; लेकिन जैसे-जैसे प्रेम गहरा होने लगे वैसे-वैसे शुद्धि बढ़ने लगे। चाहे प्रेम शरीर का आकर्षण रहा हो; लेकिन जैसे ही प्रेम की यात्रा शुरू हो, प्रेम शरीर का आकर्षण न रह कर दो मनों के बीच का खिंचाव हो जाए, और यात्रा के अंत-अंत तक मन का खिंचाव भी न रह जाए, दो आत्माओं का मिलन बन जाए।

जिस प्रेम में अंततः तुम्हें परमात्मा का दर्शन हो सके वह तो मंदिर है, और जिस प्रेम में तुम्हें तुम्हारे पशु के अतिरिक्त किसी की प्रतीति न हो सके वह कारागृह है। और प्रेम दोनों हो सकता है, क्योंकि तुम दोनों हो। तुम पशु भी हो और परमात्मा भी। तुम एक सीढ़ी हो जिसका एक छोर पशु के पास टिका है और जिसका दूसरा छोर परमात्मा के पास है। और यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम सीढ़ी से ऊपर जाते हो या नीचे उतरते हो। सीढ़ी एक ही है, उसी सीढ़ी का नाम प्रेम है; सिर्फ दिशा बदल जाएगी। जिन सीढ़ियों से चढ़ कर तुम मेरे पास आए हो उन्हीं सीढ़ियों से उतर कर तुम मुझसे दूर भी जाओगे। सीढ़ियां वही होंगी, तुम भी वही होओगे, पैर भी वही होंगे, पैरों की शक्ति जैसा आने में उपयोग आई है वैसे ही जाने में भी उपयोग होगी, सब कुछ वही होगा; सिर्फ तुम्हारी दिशा बदल जाएगी। एक दिशा थी जब तुम्हारी आंखें ऊपर लगी थीं, आकाश की तरफ, और पैर तुम्हारी आंखों का अनुसरण कर रहे थे; दूसरी दिशा होगी, तुम्हारी आंखें जमीन पर लगी होंगी, नीचाइयों की तरफ, और तुम्हारे पैर उसका अनुसरण कर रहे होंगे।

साधारणतः प्रेम तुम्हें पशु में उतार देता है। इसलिए तो प्रेम से लोग इतने भयभीत हो गए हैं; घृणा से भी इतने नहीं डरते जितने प्रेम से डरते हैं; शत्रु से भी इतना भय नहीं लगता जितना मित्र से भय लगता है। क्योंकि शत्रु क्या बिगाड़ लेगा? शत्रु और तुम में तो बड़ा फासला है, दूरी है। लेकिन मित्र बहुत कुछ बिगाड़ सकता है। और प्रेमी तो तुम्हें बिलकुल नष्ट कर सकता है, क्योंकि तुमने इतने पास आने का अवसर दिया है। प्रेमी तो तुम्हें बिलकुल नीचे उतार सकता है नरकों में। इसलिए प्रेम में लोगों को नरक की पहली झलक मिलती है। इसलिए तो लोग भाग खड़े होते हैं प्रेम की दुनिया से, भगोड़े बन जाते हैं। सारी दुनिया में धर्मों ने सिखाया है: प्रेम से बचो। कारण क्या होगा? कारण यही है कि देखा कि सौ में निन्यानबे तो प्रेम में सिर्फ डूबते हैं और नष्ट होते हैं।

प्रेम की कुछ भूल नहीं है; डूबने वालों की भूल है। और मैं तुमसे कहता हूं, जो प्रेम में नरक में उतर जाते थे वे प्रार्थना से भी नरक में ही उतरेंगे, क्योंकि प्रार्थना प्रेम का ही एक रूप है। और जो घर में प्रेम की सीढ़ी से नीचे उतरते थे वे आश्रम में भी प्रार्थना की सीढ़ी से नीचे ही उतरेंगे। असली सवाल सीढ़ी को बदलने का नहीं है, न सीढ़ी से भाग जाने का है; असली सवाल तो खुद की दिशा को बदलने का है।

तो मैं तुमसे नहीं कहता हूं कि तुम संसार को छोड़ कर भाग जाना; क्योंकि भागने वाले कुछ नहीं पाते। सीढ़ी को छोड़ कर जो भाग गया, एक बात पक्की है कि वह नरक में नहीं उतर सकेगा; लेकिन दूसरी बात भी पक्की है कि स्वर्ग में कैसे उठेगा? तुम खतरे में जीते हो, संन्यासी सुरक्षा में; नरक में जाने का उसका उपाय उसने बंद कर दिया। लेकिन साथ ही स्वर्ग जाने का उपाय भी बंद हो गया। क्योंकि वे एक ही सीढ़ी के दो नाम हैं। संन्यासी, जो भाग गया है संसार से, वह तुम्हारे जैसे दुख में नहीं रहेगा, यह बात तय है; लेकिन तुम जिस सुख को पा सकते थे, उसकी संभावना भी उसकी खो गई। माना कि तुम नरक में हो, लेकिन तुम स्वर्ग में हो सकते हो--और उसी सीढ़ी से जिससे तुम नरक में उतरे हो। सौ में निन्यानबे लोग नीचे की तरफ उतरते हैं, लेकिन यह कोई सीढ़ी का कसूर नहीं है; यह तुम्हारी ही भूल है।

और स्वयं को न बदल कर सीढ़ी पर कसूर देना, स्वयं की आत्मक्रांति न करके सीढ़ी की निंदा करना बड़ी गहरी नासमझी है। अगर सीढ़ी तुम्हें नरक की तरफ उतार रही है तो पक्का जान लेना कि यही सीढ़ी तुम्हें स्वर्ग की तरफ उठा सकेगी। तुम्हें दिशा बदलनी है, भागना नहीं है। क्या होगा दिशा का रूपांतरण?

जब तुम किसी को प्रेम करते हो--वह कोई भी हो, मां हो, पिता हो, पत्नी हो, प्रेयसी हो, मित्र हो, बेटा हो, बेटी हो, कोई भी हो--प्रेम का गुण तो एक है; किससे प्रेम करते हो, यह बड़ा सवाल नहीं है। जब भी तुम प्रेम करते हो तो दो संभावनाएं हैं। एक तो यह कि जिसे तुम प्रेम करना चाहते हो, या जिसे तुम प्रेम करते हो, उस पर तुम प्रेम के माध्यम से आधिपत्य करना चाहो, मालकियत करना चाहो। तुम नरक की तरफ उतरने शुरू हो गए। प्रेम जहां पजेशन बनता है, प्रेम जहां परिग्रह बनता है, प्रेम जहां आधिपत्य लाता है, प्रेम न रहा; यात्रा गलत हो गई। जिसे तुमने प्रेम किया है, उसके तुम मालिक बनना चाहो; बस भूल हो गई। क्योंकि मालिक तुम जिसके भी बन जाते हो, तुमने उसे गुलाम बना दिया। और जब तुम किसी को गुलाम बनाते हो तो याद रखना, उसने भी तुम्हें गुलाम बना दिया। क्योंकि गुलामी एकतरफा नहीं हो सकती; वह दोधारी धार है। जब भी तुम किसी को गुलाम बनाओगे, तुम भी उसके गुलाम बन जाओगे। यह हो सकता है कि तुम छाती पर ऊपर बैठे होओ और वह नीचे पड़ा है; लेकिन न तो वह तुम्हें छोड़ कर भाग सकता है, न तुम उसे छोड़ कर भाग सकते हो। गुलामी पारस्परिक है। तुम भी उससे बंध गए हो जिसे तुमने बांध लिया। बंधन कभी एकतरफा नहीं होता। अगर तुमने आधिपत्य करना चाहा तो दिशा नीचे की तरफ शुरू हो गई। जिसे तुम प्रेम करो उसे मुक्त करना; तुम्हारा प्रेम उसके लिए मुक्ति बने। जितना ही तुम उसे मुक्त करोगे, तुम पाओगे कि तुम मुक्त होते चले जा रहे हो, क्योंकि मुक्ति भी दोधारी तलवार है। तुम जब अपने निकट के लोगों को मुक्त करते हो तब तुम अपने को भी मुक्त कर रहे हो; क्योंकि जिसे तुमने मुक्त किया, उसके द्वारा तुम्हें गुलाम बनाए जाने का उपाय नष्ट कर दिया तुमने। जो तुम देते हो वही तुम्हें उत्तर में मिलता है। जब तुम गाली देते हो तब गालियों की वर्षा हो जाती है। जब तुम फूल देते हो तब फूल लौट आते हैं। संसार तो प्रतिध्वनि करता है। संसार तो एक दर्पण है जिसमें तुम्हें अपना ही चेहरा हजार-हजार रूपों में दिखाई पड़ता है।